Wednesday, August 14, 2013

अशोक आंद्रे

नारी
 
नारी ! 
 तुम तो बहती नदी की वो
जल धारा हो
जिसमें जीवन किल्लोल करता है
 
नारी,
 
तुम धरती पर लहलहाती
हरियाली हो
बरसात के साथ
जीवन को नमी का
अहसास कराती हो
 
नारी,
 
तुम गंगा सी पवित्र आस्था हो
जो समय को
अपने आँचल में बाँध
विश्वास को पल्लवित करती हो
 
नारी,
 
तुम्हारा न रहना
किसी मरघट की शान्ति हो जाती है
फिर सुहागन होने की
बात क्यूँ करती हो?
कुछ कदम साथ चलने की बात करो,
नहीं तो हताशा के भाव उभरने लगते हैं.  
 
नारी,
 
तुम तो सहचरी हो
मनुष्य के क़दमों को ताकत देती हुई
जीवन की संरचना करती हो
कुछ भी नष्ट होने की प्रक्रिया में भी
जीवन का हाथ थामने की
भरपूर कोशिश करती हो
सृष्टि का विस्तार भी तो तुम्हीं से संम्भव है
मनुष्य तो नारी को नकार
मात्र विनाश का ही आगाज करता है
 
नारी,
तुम्हारे अस्तित्व के कारण ही तो
कायनात की हर स्थितियां
तुम्हारे गीत गाती हैं
जिसे मनुष्य समझने की कोशिश नहीं करता
और  अपनी निकृष्टता का परिचय दे 
महान होने का दावा करने लगता है  
लेकिन नारी,
तुम्हारे बिना जिन्दगी की
सारी  क्रियाएं बेमानी हैं
इसीलिए नारी,
सृष्टि हर क्षण तुम्हारे 
 इसी खुबसूरत स्वरूप को,
हमेशा प्रणाम करती है.
 
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