Saturday, September 28, 2013

अशोक आंद्रे

 गुब्बारे में कैद सपनें
कोने में बैठी उस
लड़की को हमेशा
ख़ामोशी के
गुब्बारे फुलाते हुये देखा है
उस गुब्बारे में
उसके सपने क्यूँ कैद रहते हैं
यह हर प्राणी की समझ से परे
सिवाए ख़ामोशी के खामोश ही रहते हैं
लोग गुब्बारे में कैद
उसके सपनों में 
एक बिंदिया चिपका कर
उसे हसाने की असफल चेष्टा करते हैं
लड़की फिर भी खामोश रहती है
कैदी सपने
उसकी आँखों में छिपे दृश्यों को
उकेर नहीं पाते
उसके अन्दर आग की चिंगारी
निरंतर बडवानल की तरह सुलगती रहती है
जबकि वह कई बार
अपने सपनो से बाहर आने की कोशिश करती है
लड़की सामने पेड़ के ऊपर
हिलते पत्तों को देखती है चुपचाप
सोचती है कि इन पत्तों की तरह
उसके सपनों पर लहराते दृश्य
क्यूँ नहीं कोई हरकत कर पाते ?
आखिर उसके विशवास क्यूँ डगमगाते हैं
तभी हवा परदे हिलाती
उसके कानों में कुछ
गीत गाती चली जाती है
तभी महसूस करती है कि
उसके सपनें कमल की तरह
समय की लहरों पर
कुछ शब्द उकेरने लगते हैं
गुब्बारा उसकी खामोशी के सूखे पत्तों का
एक नया वितान बना
प्लेटोनिक प्यार के पन्नों को चलायमान करता है
आखिर सूखे पत्तों पर तो ही
शब्दों का जाल रच कर 
कोई लड़की
संगीत की सत्ता तैयार करती है   
 जानती है कि
उसकी सोच के सारे रास्ते
इसी सत्ता के माध्यम से
जिन्दगी के बंद दरवाजों को
खोलने में सक्षम होंगे
जहां से
अपनी मंजिल तय करनी है
तभी वह
गुब्बारे में कैद
अपने सपनों को
कोई दिशा दे पायेगी.
     ********

Tuesday, September 17, 2013

अशोक आंद्रे

खून
 
हाँ यही वो जगह है
 
जहां पर
अभी कुछ समय पहले
एक चलते-फिरते शरीर को
दनदनाती गोलियों के साथ
खामोश कर दिया है.
क्योंकि उसने सारी  जिन्दगी
सच्चाई के लिए
अंतहीन लड़ाई लडी है.
 
और ये,
चुप्पी साधे पत्ते
उसके प्रत्यक्षदर्शी गवाह हैं
जो अभी तक दहशत में
सिहरे खड़े हैं
हाँ! यही वो जगह है
जहां की मिट्टी ने
खून से लथपथ
उस आत्मा को
तड़फड़ाते देखा है.
उसकी इस सच्ची शहादत को सिर्फ
दो-चार चिड़ियों ने घबराकर देखा होगा
जिनकी गवाही को
बाद के छ्णों में तोड़-मरोड़ दिया जायेगा
क्योंकि उनकी गवाही नहीं हो सकती है
हाँ एक व्यक्ति ने व्यक्ति को
सच बोलने के जुर्म के तहत
हमेशा के लिए
उसकी आवाज को शांत कर दिया है
अब सिर्फ इतिहास के पन्ने
खून से सनी उस मिटटी को
कल अवशेषों को ढूँढने की तरह खोदकर
अपनी जिम्मेदारी को पूरी कर देगा.
लेकिन यह खून हमेशा
चिल्ला-चिल्ला कर 
उस जगह की तरफ संकेत करेगा
जहां से फिर हमें
उसकी लड़ाई को आगे बढाना होगा.
                 ******   

Wednesday, September 11, 2013

अशोक आंद्रे

अंधड़ के पीछे
  
जब चला जाऊँगा देह के पार
मौत तब दरवाजों को पीटती
देह तक पहुंचने की
कोशिश करती रहेगी
क्योंकि रोश्नी की पहुँच  
मेरे साथ होगी
किन्तु अन्धेरा भी
चाँद की रोश्नी में कहीं
दरवाजों के पीछे छिपा
अट्टहास कर रहा होगा,
सन्नाटा उस पर लदा
कुछ लकीरों को
खींच देगा 
परती धरती पर,
जहां उड़ती धूल की चादरें
मौत के मुंह को ढक कर
किसी अंधड़ के पीछे धकेल देगी
क्योंकि मैं तो वहां होऊंगा नहीं
केवल देह होगी
इन्तजार करती हुई
क्योंकि लौटना तो मुझे ही है
उस देह के पास
उसका अंत भी तो वहीं है न
जहां हर बार लौटता हूँ मैं
अपनी आस्थाओं के साथ.
प्रभु तुम तो मात्र दर्शक दीर्धा के
मूक दर्शक ही तो हो
नाटक तो मुझे ही खेलना है न.
             ******