Friday, February 12, 2016

अशोक आंद्रे

        
सिसकती लय पर
 
पौरुश्ता का दंभ
आदमी का अट्टहास
दिन के उजाले में
अनाम सिसकती लय पर
करता है तैयार अदृश्य बाड़ा
यह संभावनाओं का संक्रांति काल है
जो, नारी को पूर्वाग्रही आख्यानों में लपेट
उसे नवजागरण के गीत सुनाता है
क्योंकि सिसकियों की कीमत
कंगन के बराबर है उसके लिए,
उसकी हर चीख को दयनीयता में बदल
छिपा देता है परदे के पीछे,
ताकि स्वयं को काम-देवता
घोषित किया जा सके.
जबकि उन्नत उरोजों के
उछल पर
सिसकते हुए लब
ढूंढते रहे अज्ञात किनारे
ताकि जिन्दगी बची रहे,
जबकि विकल्प के बिना
सिसकियाँ आज भी बरकरार हैं.
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