Tuesday, October 20, 2009

तीन कविताएँ - बसंत कुमार परिहार

आदमी बहुत छोटा है

आओं,
इन हवाओं के साथ मिलकर गाएं
इनकी सरसराहट में
प्रादेशिकता की बू नहीं -
न मजहबी तास्सुबे, न कटुता -

आओं,
इन विहगों के साथ मिलकर गाएं
और उडें निर्भीक होकर -
इनकी दुनिया में
न दहशतगर्दी है,न आतंक -
इन्हें न सैलाब का डर है
न किसी आंधी या तूफान का-
इनकी दुनिया में आंतकवादी नहीं होते,
हवाओं की तरह
इनका जीवन भी मुक्त है बन्धनहीन.
अपनी इच्छा से उड़ते हैं ये प्रवासी -
इनकी दुनिया में कोई रोकटोक नहीं
न कोई बंधन है पासपोर्ट का
न प्रवास - पत्र की जरूरत-

हवाओं की तरह
गुदगुदा लेते हैं ये सीना
चढ़ी नदी का-
घुस जाते हैं पर्वतों की फटी दरारों में-

पेड़ों से कर लेते हैं छेड़खानी -
अपने पंखों पर
तोल लेते हैं ताकत तूफानों की.
आदमी कितना छोटा है इनके आगे!
खुद अपने आप से डरा
अपने बन्धनों में बंधा
अपनी ही रस्सियों में कसा-

आओं, हवाओं के साथ गाएं
पक्षिओं के साथ उड़ें !

परिंदा

मैंने जब- जब
पानी की सतह पर
चलने की कोशिश की
मुझे उस आसमान से डर लगा
जो सागर में छिपा
थरथर काँप रहा था
और हैबत खाई नजरों से
मुझे घूर रहा था

सागर में दुबका बैठा वह भीरु
अगर
तनकर खडा हो गया होता
जुल्म के खिलाफ उठी
किसी तलवार की तरह
तो सच कहता हूँ
मेरे भीतर जो बैठा है अदम्य
पानी की सतह पर चल पड़ता पुरजोर !

यह अन्दर का ही भय है
जो मारता है मनुष्य को
वर्ना
पानी चाहे कितना ही सुनामी बनकर
क्यों न गरजे या लरजे
कहीं वह
संस्कृतियों और मनुष्यों को मिटा सकता है !

मैं जानता हूँ
कि मैं चल सकता हूँ
सतह के ऊपर
लेकिन
पहले मुझे
उस हिलते हुए आकाश को
बाँध लेना है अपनी बाहों में
जैसे वह छोटा सा परिंदा
बाँध लेता है आकाश को
अपने पंखों की परवाजी कुव्वत में
और अपनी छोटी सी आँख में
बिठाकर उसे
घूमता रहता है उन्मुक्त -
गुदगुदा लेता है
नदिओं , सरोवरों और सागरों का सीना
और उठा ले जाता है
पानी की बूँद में बैठा नायाब मोती !

परिंदे की दुनिया में
डर का नाम लेना वर्जित है
इसीलिये शायद
हवाई जहाज ईजाद करने वाले इंसान से भी
कहीं ज्यादा लम्बी
उड़ान भर लेता है परिंदा !


जमीन से पहचान

आसमान की ओर ताकने से
तकदीरें तो बुलंद नहीं हो जातीं -
पता नहीं शायद इसी गलतफहमी में
इस देश के लोग
आज तक
ताकते रहे हैं आकाश
और भूतली साजिशों से
नितांत बेखबर रहे !

ऋतुचक्र तो घूमना था- घूमता रहा
बसंत आया - अनदेखा कर दिया
शरद मुस्काई - हेमंत सिसियाई
थरथर कांपते काट दीं शिशिर की रातें
निदाध के दाग भी सहे सीने पर-
तुम्हारी दुर्दशा देख
क्वार भी भाग गया फटा गूदड़ समेत!

नजर झुकाकर
जरा देखते तो सही अपनी जमीन
मूसलाधार वर्षा ने
कैसा दलदल कर दिया है सबकुछ
तुम्हारे पांवों तले-
लेकिन अब खुलने लगा है आकाश
और मौसम भी होने लगा है साफ जरा-जरा
पर तुम
दलदल में धंसे रहना
अपनी नियति समझ बैठे हैं -
कम्बल में गुच्छू -मुच्छू बैठे
आकाश ताकते रहने से
तुम आकाश के तारे तो नहीं तोड़ सकते ?

उठो !
निकलो दलदल से बाहर
और तुम्हारे इर्द-गिर्द
जो सब्जा उग निकला है
उसकी रावट महसूस करो !
अब तक कुल पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित तथा कई पुरुस्कारों से सम्मानित।
वर्तमान में -त्रैमासिक -पत्र 'आकार ', अब अहमदाबाद आकार का लगातार सम्पादन ।
संपर्क -१/१, पत्रकार कालोनी , नारायणपुरा , अहमदाबाद (गुजरात )
फ़ोन : ०७९-२७४३५८०१

Monday, October 19, 2009

आस्था अनंतिम (कहानी) - राज कुमार गौतम

स्था का यूं जबरन बुलाना .......अनंतिम को पहेली - जैसा लग रहा था . अभी दो महीने ही तो गुजरे हैं मुलाक़ात हुए . मुलाक़ात नहीं , 'मुठभेड़ ' हुए -अनंतिम ने सोचा और शरारती मुस्कराहट का मजमा उसके चेहरे पर नमूदार हुआ . फ्लाईट का सहयात्री भी मानो इस मजमे का मज़ा ले रहा था. आस्था तो इस 'मुलाक़ात' से मानो सहम ही गयी थी . "इतना आक्रामक होने की क्या जरूरत थी ?" अनंतिम से सवाल पूछते हुए आस्था भी कम आक्रामक नहीं थी !

"क्योंकि मैं अपने ज्ञान और व्यायाम के सर्वोच्च शिखर पर था. इसलिए . आज की समझदार और मेच्योर दुनिया में सफल होने के लिए आक्रामकता और दुस्साहस की जरुरत है . दैट्स इट!"

आस्था ने स्वयं को तेजी से समझाया और चुपा गई. 'कुछ होने तक इन्तजार करो '-का सूत्र उसे याद आ रहा था आस्था की निःशब्दता से अनंतिम को फिर गलती लगी थी उसे समझने में . अनंतिम जो कि जीवन को एक तंत्र , पद्धती की तरह सोचता है और आस्था जो कि जीवन को एक महान संस्था के रूप में पाती है . नदी की तरह बहता आता है जीवन और पता नहीं हिम कण का कौन - सा कतरा हमें पानी की तहों में एकाकार कर देता है . प्रकृति के इस करिश्मे में नेतृत्व किसी अदृश्य का है - ऐसा मानती है आस्था , जबकि अनंतिम की 'लीडर ' और 'ग्रेट ' होने में रूचि है . दिन को जीना छतीस घंटे के बराबर - यह जीवन- दर्शन है . उपलब्ध चादर से बाहर सोचना और सोना - यह प्रयास है और ज्ञान के बलबूते पर भविष्य को सामने से झेलना - यह शूरवीरता है अनंतिम की . जीवन की सायं-सायं करती नीरवता के नहीं , शंखनाद के बीच जीना पसंद आता है अनंतिम को
"मगर इससे तुम्हें विजय के उल्लास भाव से वंचित होना पड़ता है ." आस्था ने टिपण्णी की थी एक बार.
"आस्था, तुम्हें नहीं लगता कि जीवन की भी मार्केटिंग होनी चाहिए. इस बाजार को बढना और फैलना चाहिए. हमारी- तुम्हारी एकल दुनिया की एक पर्सनल लैंग्वेज होनी चाहिए. उत्पादन और आधुनिक तकनीक का संतुलन स्थापिक होना चाहिए." अनंतिम का पेशेवर व्यक्तित्व बोल रहा था, मगर उसका व्यक्ति कहीं हिचकोले ले रहा था. आस्था ने उन हिचकोलों की सवारी गांठी. "सच बताना अनंतिम, तुम्हारे जीवन- आदर्शों के चलते तुम्हें साथी के रूप में एक प्रियतम चाहिए थी या बाजार की परिस्थितियों को बेहतर पहचानती एक ऐसी औरत जो कि अपने मादरजात आकर्षणों को बेचकर तुम्हारे भविष्य को अगले सौ वर्षों तक सुरक्षित कर पाती?"
वाक्पटु अनंतिम का उत्तर एकदम किताबी था, "उस औरत के भीतर से मैं अपनी प्रियतम को आरक्षित कर लेता और उसके शेषांश को बाजार में चढ़ा देता. इस रणनीति के साथ कोई राजनीति नहीं, कोई मर्दवाद भी नहीं. फिर भी कहता हूँ कि घिसे- पिटे आदर्श, जैसे संबंधो की पवित्रता वगैरह-उतने गए - गुजरे भी नहीं थे. जीवन की नई चुनौतियों को मैं खारिज नहीं करूंगा, बल्कि उन्हें टालना या सहना चाहूंगा. समस्याओं के निदान में तेजी से विकास आना चाहिए, नव और भव्य क्रिएटिविटी के साथ."
"ठीक ऐसा ही तुमने मेरे साथ किया. पहले प्रेम करने का जोखिम उठाया, फिर सम्मान प्रदान करने के तौर पर शादी रची!" आस्था के इस सवाल या जवाब से अनंतिम परेशान नहीं हुआ. समझाने का स्वर था उसका, "तुम मानव इतिहास देखो आस्था , क्या है उसमें सिवाय मूल्य, सौंदर्य, व्यक्ति और समाज की जान-माल की सुरक्षा, बेहतरी और श्रेष्ठता के लिए ख़ास आकर्षणों आदि के. इन सबको हमें प्राथमिक स्तर पर देखना होता है. यह बदलता जीवन है ....बारहमासी वसंत आने को है. इस पर विलाप करने की कोई गुंजाइश कहाँ!"
संवाद के इस अंश को ही आस्था ने उस 'मुलाक़ात' से जोड़ लिया था. शादी के वर्षों बाद उन दोनों ने फैसला किया कि इस अकेली और इकहरी गृहस्थी में अब संतान को भी आमंत्रित किया जाए. सफलता के लिए एक बार फिर से ज्ञान को सीढ़ी बनाया था अनंतिम ने. देश के दूरस्थ शहरों में अलग-अलग शानदार नौकरी करने की विवशता झेलते हुए भी आस्था अनंतिम ने एक- दुसरे में समर्पित-निसर्जित होने का संकल्प लिया था. दोनों के लिए ही अवकाश लेना एक समस्या थी और फिर उन ख़ास तिथिओं में अवकाश लेना, जबकि ऋतुमती होने के बाद आस्था संतानोत्पत्ति की शर्तिया खान बनी हुई हो.
बमुश्किल चार दिन - रात का इंतजाम हो पाया उस लहलहाती अवधि में . आस्था, अनंतिम के लिए फ्लाइट की बुकिंग हो गयी और किसी तीसरे शहर में उन दोनों के लिए पांच सितारा होटल का कमरा भी. हलाँकि अब तक वे एक-दूसरे के लिए खुली किताब बन चुके थे, मगर इस बार उनके पास एक चाबी भी थी, जिनके जरिये वे एक शिशु के लिए आगमन द्वार खोलने को उद्धत थे.
सब कुछ नाप-तौल कर हो रहा था, मगर ऐन वक्त पर प्रकृति अपनी चाल चलने से बाज नहीं आई. उन तीन दिन-रातों तक आस्था की देह से अनंतिम के लिए गाली बहती-रिसती रही और इस चक्र विलंब का स्पष्टीकरण उन दोनों के पास नहीं था. खीझ और औने-पौने शरारत पूर्ण कृत्यों से पांच सितारा होटल का वह कमरा भी किच-किच होता था.
अंतिम दिन होने के उदासीपूर्ण एहसास को अनंतिम ने तोडा, होटल का कमरा बदल कर. अनंतिम ने फिर तय किया कि प्रकृति से पराजित नहीं होना है उसे. सीप में मोती की स्थापना के लिए जरूरी है कि अपने ज्ञान के विशवास को रत्नजडित बनाया जाए .
"आस्था, मैं चाहता हूँ कि हम केवल एक बार मिलें. मुझे पूरा यकीन है कि यह श्योर शाट होगा. और यदि हम असफल रहे, तो फिर जल्दी ही छुट्टियों का जुगाड़ कर लेंगे."
अनंतिम की इस शरारत को आस्था ने अपनी आँखों में गहरे छिपा लिया था.
आस्था के लिए वह रात ब्रहम्मांड के दिखते-छिपते हजारों चाँद लेकर आई. बिस्तर पर फूलों लदी घाटी उग आई थी और खुशबू के तमाम समन्दरों ने अपनी लहरों में उसे सराबोर कर दिया था. उसका शरीर एक महाकाय वाद्य यंत्र था जो जरा - सा झंकृत होता, तो तमाम अजन्मे शिशुओं की समवेत किलकारियां उसके कानों में धक्का-मुक्की करतीं .
"आस्था !" अनंतिम ने पुकारा था उसे और परीलोक से बाहर आते ही वह कांप उठी . अनंतिम दवाओं के कुछ काले नीले रैपरों को पुचकार रहा था और अगले ही पल उसने स्वयं को मानो इस मारामारी कि सहभागी नहीं, प्रतिभागी बना लिया था .
अब आस्था हिस्त्र पशुओं के बाड़े में घिरी थी , उनकी भूख -प्यास, नफ़रत, हिंसा , नुकीले सींगों,कटखने दांतों और बघनखों को झेलती . अनंतिम एक उत्तम तैराक कि तरह डुबकी लगा रहा था और उसकी नसों में दवाओं का दैत्य हरहरा कर बह रहा था . पांच सितारा होटल के उस कमरे में आस्था का आसमान गायब था और पाताल में डूबते हुए उसका दम घुट रहा था. अन्तरंग संबंधों के शव को नोचने सियार, गिद्ध कौवे .... सब इकट्ठा हो रहे थे . हजारों चूहों कि कुतरन...... लाखों आक्टोपसों कि भुजाओं कि लिजलिजी जकड़न ......!
प्रलय के कुछ पलों के बाद आस्था ने अपनी बगल में एक बेस्ट परफार्मर को मुहं फाड़ कर सोते हुए पाया. रात भर स्लो मोशन में नरक का दृश्याव्ला आस्था की देह में रस्सी बन कर तनी रही.
"मैं तुम्हारे प्रेम भरे दिल से तिरोहित होना चाहती थी, अनंतिम."
ऐसा सोचते ही आस्था को रोना आ गया.
फाइव स्टार होटल का वह कमरा किसी और के नाम बुक हो गया. फ्लाइट्स ने उन दोनों को अपने-अपने शहर के फडफडाते सीने में उतार दिया. नलों में पानी आता रहा. समर्थकों के लिए बाबा लोगों के प्रवचन जारी रहे. घडियां टिकटिकाती रहीं. कैलेंडर से दिन मुहं छिपाते रहे और इस सारी चलायमान स्थिति में आस्था ने देखा और फिर डॉक्टर ने पक्का किया कि हाँ, वह रूक गई है!
उधर अनंतिम भी व्यकुल था. 'फोक्स' गोल या श्योर शाट के परिणाम को जानने के लिए. महीना बीत जाने पर पल-पल की पूरी जानकारी. उसने जिन्दगी का सर्वाधिक पेचीदा दावं लगाया था. आस्था भी एक-दो दिन ही छिपा सकी इस सच्चाई को. 'डील' के सफल होने की सूचना से अनंतिम तो एकदम तर-ब-तर. एक पल में छत्तीस हजार बार पीठ ठोंक डाली अपनी.
सप्ताह भी नहीं बीता कि अनंतिम के लिए वह सफलता विगत हो गयी. फोन पर वह इस बात की चर्चा भी नहीं करता, जबकि आस्था के दिन-रात महाभारत हो चले थे. आस्था ने जब
इसे मुद्दे की तरह बनाना तो अनंतिम ने फैसला दिया,"कीप इट सिंपल. लो प्रोफाईल्ड ."
मगर आस्था को चैन कहां! कैसी उद्दाम हिंसा और वासना के स्वाद ने उसकी कोख को
छुआ है. इस घृणा और अनचाहे ममत्व को आजन्म कैसे बर्दाश्त किया जा सकेगा ? उसने स्वयं को यह समझाने की कोशिश की कि पीड़ियों के अन्तराल में चीजें नहीं रहतीं, मगर
शिशु को प्रेम से दुनिया में न लाओ, इससे तो पूरी मानवता को ख़तरा है. हाँ इतना वह मानती
है कि नर-मादा की गर्भाधान के वक्त की मानसक स्थिति का आंशिक अवतरण आने वाले जीव में होता ही है.
भ्रूण हत्या ...! आस्था पूरी बात सोचने से पहले ही सिहर उठी. उस जीव का भला क्या दोष जो कि एक परिणाम या उत्पाद के रूप में सामने आने को है. हाँ, दोष तो उस बाजारू
प्रबंधन का है जिसने जाने-अनजाने शिशु के आगमन को अपंगता दे डाली है. और माध्यम
बना है-अनंतिम.
आस्था की गंभीरता और दृडता देख कर ही अनंतिम छुट्टियों का जुगाड़ करके पहली फ्लाईट से आ रहा है. आमने-सामने हो कर ही आस्था जानना चाहेगी कि क्या कहा जाए?
लंबा- सा विवाद है. संवाद दोनों के माध्यम से गायब. शिशु हन्ता बनें - यह बात भी दोनों को मंजूर नहीं. तो फिर प्रायश्चित और पश्चाताप ही बचता है. ...और अंत में आस्था, अनंतिम एक बिन्दु पर पहुंचे हैं कि आने वाले शिशु के लिए यह घटना एक लिखित दस्तावेज बने और
सही समय आने पर वह इस कुरूप सचाई को जान सके .
वाक्पटु अनंतिम का मस्तिष्क फिर भी कुछ सुझाने से बाज नहीं आता, "आने वाली दुनिया में प्रेम और एकता ही सबसे बड़ी और उपयोगी तकनीक होगी. आदर, टीम वर्क,आमोद - प्रमोद ,परस्पर विश्वास ,श्रेष्टता तथा सर्जना ...अंततः इन्ही से जिंदगी संवरेगी . मैं नहीं मानता कि दोषारोपण के आत्म स्वीकार से मैं अच्छा सिद्ध होऊंगा या ओछा ...मगर हां,गलती मुझसे हुई है ...शायद !"
और हां ,आस्था ने यह कहानी स्वयं लिखी है अपने अजन्मे शिशु
के लिए .



कई पुस्तकें अब तक प्रकाशित तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान , लखनऊ द्बारा सम्मानित।
६०/४ सी सेक्टर -२ डी आई जेड एरिया , काली बाड़ी मार्ग , न्यू दिल्ली -११०००१
०९९३३२६५१९९ , ९३१३६३६१९५