Sunday, December 4, 2011

कविताएँ - अशोक आंद्रे


हवा के झोंकों पर

रात्री के दूसरे पहर में
स्याह आकाश की ओर देखते हुए
पेड़ों पर लटके पत्ते हवा के झोंकों पर
पता नहीं किस राग के सुरों को छेड़ते हुए
आकाश की गहराई को नापने लगते हैं
उनके करीब एक देह की चीख
गहन सन्नाटे को दो भागों में चीर देती है
और वह अपने सपने लिए टेड़े-मेड़े रास्तों पर
अपनी व्याकुलता को छिपाए
विस्फारित आँखों से घूरती है कुछ
फिर अपने चारों और फैले खालीपन में
पिरोती है कुछ शब्द
जिन्हें सुबह के सपनों में लपेटकर
घर के बाहर ,
जंगल में खड़े पेड़ पर
टांग देती है हवा, पानी और धूप के लिए
तभी ठीक पास बहते पानी की सतह पर
कोई आकृति उसके जिस्म में पैदा करती है सिहरन
तभी अपने को समेटते हुए एक ओर खड़ी होकर
ढूँढने लगती है कोई सहारा
मानो इस तरह वह अपनी देह के साथ
अपनी कोख को आहत होने से बचाने के लिए
अपने ही पैरों से कुछ रेखाओं को खींच कर
किसी अज्ञात का सहारा ले रही हो
तभी घबराहट में उसके बाल हवा में लहरा जाते हैं
जिन्हें बांधने का असफल प्रयास किया था उसने
जिन्हें बिखरा,उसके चेहरे को
ढक दिया था किसीअन्य देह ने
ताकि उसकी कोख को
जमीन छूने से पहले झटक सके अपने तईं.
उधर पानी की शांत लहरें
उसके बुझे चेहरे पर सवालों की झरी लगा देती हैं
जो फफोलों में बदल कर लगते हैं भभकने.
अनुत्तरित जंगल खामोश दर्शक की तरह
अपनी ही सांसों में धसक जाता है
तभी मूक हंसी लिए ओझल हो जाती है वह देह कहीं दूर
छोड़ जाता है उसे उसके ही अकेलेपन के
घने कोहरे के मध्य
शायद यही हो सृष्टी के अनगढ़ स्वरूप की कर्म स्थली
नया आकार देने के लिए उसको
शायद इसीलिए जंगल ने भी
हवा के झोंकों में खो जाना ज्यादा सही समझा
शायद इसीलिए वह फिर नये सिरे से
जमीन को कुरेदने लगी है
अपने ही पाँव के अंगूठे से


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दो

पानी का प्रवाह

जो
पूर्ण है-
उसे व्यक्त करना
अथवा उसकी ओट से
विध्वंस की भावनात्मक सोच का
विस्तार करना
किस दिशा की ओर इंगित करता
कहीं यह सत्य का विखंडन करना तो नहीं?
उसके प्रवाह को रोकना सत्य हो सकता है क्या ?
सत्य तो परावर है
जिस तरह पहाड़ों से नीचे की ओर
आता पानी
भविष्य को निर्धारित कर जाता है
जैसे ठीक बरसात के बाद
सूखी जमीन पर फैली घास को छू कर
पानी का प्रवाह
विस्तार कर जाता है ईश्वरीय सत्ता का.

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Sunday, August 28, 2011

अशोक आंद्रे

साकार करने के लिए

कविताएँ रास्ता ढूंढती हैं
पगडंडियों पर चलते हुए
तब पीछा करती हैं दो आँखें
उसकी देह पर कुछ निशान टटोलने के लिए.
एक गंध की पहचान बनाते हुए जाना कि
गांधारी बनना कितना असंभव होता है
यह तभी संभव हो पाता है
जब सौ पुत्रों की बलि देने के लिए
अपने आँचल को अपने ही पैरों से
रौंद सकने की ताकत को
अपनी छाती में दबा सके,

आँखें तो लगातार पीछा करती रहतीं हैं
अंधी आस्थाओं के अंबार भी तो पीछा कर रहे हैं
उसकी काली पट्टी के पीछे

रास्ता ढूंढती कविताओं को
उनके क़दमों की आहट भी तो सुनाई नहीं देती
मात्र वृक्षों के बीच से उठती
सरसराहट के मध्य आगत की ध्वनियों की टंकार
सूखे पत्तों के साथ खो जाती हैं अहर्निश
किसी अभूझ पहेली की तरह
और गांधारी ठगी-सी हिमालय की चोटी को

पट्टी के पीछे से निहारने की कोशिश करती है .

कविताएँ फिर भी रास्ता ढूंढती रहती हैं
साकार करने के लिए
उन सपनों को-
जिसे गांधारी पट्टी के पीछे
रूंधे गले में दबाए चलती रहती है.
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Monday, June 13, 2011

अशोक आंद्रे

बाबा तथा जंगल

परीकथाओं सा होता है जंगल
नारियल की तरह ठोस लेकिन अन्दर से मुलायम
तभी तो तपस्वी मौन व्रत लिए
उसके आगोश में निरंतर चिंतन मुद्रा में लीन रहते हैं
बाबा ऐसा कहा करते थे.
इधर पता नहीं वे, आकाश की किस गहराई को छूते रहते
और पैरों के नीचे दबे -
किस अज्ञात को देख कर मंद-मंद मुस्काते रहते थे
उन्ही पैरों के पास पडीं सूखी लकड़ियों को
अपने हाथों में लेकर सहलाते रहते थे.
मानो उनके करीब थकी हुई आत्माएं
उनकी आँखों में झांकती हुई कुछ
जंगली रहस्यों को सहलाती हुई निकल रही हैं.
फिर भी वे टटोलते रहते थे जीवन के रहस्य
उन्ही रहस्यों के बीच जहां उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात.
उनके करीब पहाड़ फिर भी खामोश जंगल के मध्य
अनंत घूरता रहता था.
यह भी सच है कि जंगली कथाओं की परिकल्पनाओं से बेखबर
मंचित हो सकने वाले उनके जीवन के अध्याय

अपनी खामोशी तोड़ते रहते,
ताकि उनका बचपन-
उनके अन्दर उछल कूद करता
जंगल को उद्वेलित कर सके
ताकि वे अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --सिवाय अंत के .

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