Tuesday, July 29, 2014

अशोक आंद्रे


आहट दो क़दमों की

रोज शाम के वक्त सुनता है वह  
जब उन दो क़दमों की आहट को ,
तब साँसें थम जाती हैं
उन हवाओं की थपथपाहट के साथ
जहाँ ढूँढती हैं कुछ, उसकी निगाहें
घर के आँगन के हर कोनों में,
वहीं पेड़ भी महसूस करते हैं
पत्तों की सरसराहट में उन आहटों को,
उन्हीं दृश्यों के बीच अवाक खड़ा
नैनों की तरलता को थामें
निहारता रहता है आकाश में
अपनी स्व: की आस्थाओं को भीजते हुये  
किसी मृग की तरह,
लेकिन जिस्म तो
किसी अनाम रोशनियों के बीच
नन्हें शावक की तरह गायब हो गया है
वहां अँधेरा इबारत तो लिखता है
जिसे पढने में असमर्थ वह  
उन क़दमों की आहट में छिपे
शब्दों को अपने कानों के करीब
फुसफुसाते हुये महसूस करता है,
तब पास ही बिछी
नन्हीं कोंपलों की चादर को 
अपने पांवों के नीचे फैली
कोमलता भरे स्पर्श को अनुभूत करता है, 
जहां वह हमेशा उसके करीब रहता है  
क्योंकि उसके-अपने मध्य  
ईश्वरीय अक्स उसको  
अपने करीब की थिरकती साँसों से
आत्मीय सुकून से भर देता है

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Sunday, June 1, 2014

अशोक आंद्रे

सपनें

 कितने सपने लेता है आदमी
सारे रिश्ते
सपनों के करीब
झिलमिलाते हैं उसके
कहते हैं कि सपने
आसमान से आते हैं
लेकिन आदमी चला जाता है इक दिन
और सपने नीचे रह जाते हैं
आखिर सपने साथ क्यों नहीं जाते ?
उन सपनों का क्या करे जो
पीछे रह जाते हैं,
क्योंकि वे तो
सर्वनाम बन कर जीने लगते हैं.
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यादें
मेरे चारों ओर
यादों को समेटे
सूखे पत्तों का अंबार लगा हुआ है
और मैं अपनी बेवकूफी से
उन पत्तों पर पैर रख कर
अपनी यादों की चिंदी-चिंदी कर बैठता हूँ
शायद यही नियति होती है
उस सत्य की
जिसे सदियों से हम
पालते पोसते रहे हैं.
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भूखे पेट
ये कैसा दृश्य है
दीया तो मंदिर में जलता है
लेकिन अँधेरा
घर में फैलता है
आदमी है कि
गीत प्रभु के गाता है
दूर कहीं भूखे पेट
बिलखता है बच्चा .
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Sunday, April 13, 2014

अशोक आंद्रे

 
यादों के मकान
जब से यादों के मकान बनाये हैं
उसमें सब कुछ होने के बावजूद
हर वक्त
रोशनदान की कमी महसूस होती है
तभी से एक बैचेनी का सैलाब
पूरे समय
घेरे रहती है उसको
और जिन्दगी की सुभह को
शाम में तब्दील कर देती है
वहां सूरज तो है
मात्र लाली लिए हुये
सब कुछ राख कर देना चाहती है
जो बदनुमा दाग की तरह
उसकी सिहरन भरी जिन्दगी में
सब कुछ बयाँ कर जाता है
जिसे सूरज की रोश्नी में
हमेशा के लिए भूलने की
कोशिश करता है
जबकि रोशनदान तो फिर भी दिखाई नहीं देता है.
उधर घर के पास बैठा
बूढ़ा भी तो
सुभह उठते ही
रात की कालिमा से
लदे दाग को झाड़ने लगता है
वह जानता है कि दाग तो हट नहीं पाते
किन्तु उसके हाथ
जरूर लाल होकर
ताजगी का अहसास करा देते हैं
उसे देख वह भी
रोशनदान के न होने के
दुःख को भूल जाता है
फिर अपनी यादों के मकान में
रोशनदान की कल्पना को स्थापित कर
सुभह की ताजगी को महसूस करने लगता है
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Friday, March 14, 2014

अशोक आंद्रे

रहस्मयी परछाइयाँ

 
अँधेरे में टिमटिमाती रोशनियों में
देखता है एक बच्चे को   
जो शब्दों की रहस्मयी परछाइयों को
खंगालते हुए
साधनाओं के घेरे बनाता हुआ दिखाई देता है.
उन घेरों में-
फंसे यथार्थ को सच्चाई की
चादर पर बिछा कर वह     
उस छोटे बच्चे की आहट को
दिये का सहारा देकर
पास बुलाता है
पता नहीं वह खोया-खोया सा
क्षितिज में क्या ढूंढ रहा है
उसके सधे हुए सारे शब्द
सन्नाटा तोड़ते
उसकी उलझनों को,
बुनी हुई रस्सी की तरह
लपेटते हुये
अपने पास आने का संकेत
उछाल कर
उसकी दुविधा को
किसी अन्य ग्रह में दफन कर देता है
ताकि वह अपने छोटे-छोटे पांवों से
चलते हुए
धरती के हर कण में
जीवन रोप कर
आनंद की फुहार कर सके
ताकि वह शब्दों की रहस्मयी
परछाइयों की बदली छांट सके  
ताकि सन्यासी की थिरकन भरे आनंद को
जीवन में उतार कर
अपने समय को नई दिशा दे सके.
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Saturday, February 1, 2014

अशोक आंद्रे



अजनबी छुअन

जब भी अपनी महान खामोशियों में उसे ढूंढता
तेज आँधियों में उसका अस्तित्व
सूखे पत्तों की तरह
रेतीले सागर में कैसे खो जाते थे ?
उसकी सारी यात्राएं भी
प्रस्थान बिंदु की ओर क्यों लौटने लगतीं थीं?
समय की सरसराहट जरूर
जिन्दा होने का आभास देती थीं   
आखिर एक जिस्म ही तो था उसके पास  
 जो उन आँखों तक पहुंचाता था  
जिसे छूकर वह  
एक अजनबी छुअन की ताकत को महसूस करता था .
तब झील में गिरते पत्तों की खुशबू भी
किनारों को छूती हुई
जब भी लौटती
उसके अन्दर का जंगल
महकता हुआ
किसी तूफान की तरह  
चारों ओर से घेर लेता. 
जहां स्मृतियों के अथाह कोलाहल में
कितनी अनुभूतियाँ अनजाने ही
उसे छूने लगतीं.  
लगता जीवन कभी एकाकी नहीं हो सकता
क्योंकि विश्व की हर छुअन जो उसके साथ थी 
जहां कई रंगों में महकता जीवन
उनके बीच अद्भुत संरचना करता दिखाई देता है
लगता वहीं उसका भी कोई रंग अठखेलियाँ करता है  
जिसे अक्सर ढूंढता है मन की गहराइयों में   
फिर वे सूखे पत्तों की तरह
कैसे रेतीले सागर में खो सकते हैं ?
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