Monday, June 13, 2011

अशोक आंद्रे

बाबा तथा जंगल

परीकथाओं सा होता है जंगल
नारियल की तरह ठोस लेकिन अन्दर से मुलायम
तभी तो तपस्वी मौन व्रत लिए
उसके आगोश में निरंतर चिंतन मुद्रा में लीन रहते हैं
बाबा ऐसा कहा करते थे.
इधर पता नहीं वे, आकाश की किस गहराई को छूते रहते
और पैरों के नीचे दबे -
किस अज्ञात को देख कर मंद-मंद मुस्काते रहते थे
उन्ही पैरों के पास पडीं सूखी लकड़ियों को
अपने हाथों में लेकर सहलाते रहते थे.
मानो उनके करीब थकी हुई आत्माएं
उनकी आँखों में झांकती हुई कुछ
जंगली रहस्यों को सहलाती हुई निकल रही हैं.
फिर भी वे टटोलते रहते थे जीवन के रहस्य
उन्ही रहस्यों के बीच जहां उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात.
उनके करीब पहाड़ फिर भी खामोश जंगल के मध्य
अनंत घूरता रहता था.
यह भी सच है कि जंगली कथाओं की परिकल्पनाओं से बेखबर
मंचित हो सकने वाले उनके जीवन के अध्याय

अपनी खामोशी तोड़ते रहते,
ताकि उनका बचपन-
उनके अन्दर उछल कूद करता
जंगल को उद्वेलित कर सके
ताकि वे अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --सिवाय अंत के .

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