दरिन्दे
दरिन्दे करीब की दुनिया में
अँगुलियों की नोक पर टिकाये,
सधे हुये शब्दों की
तासीर में
छुआ देते हैं मरघट की आग.
भीड़ बेचारों की
छिपाये आक्रोश को जेब में
फुसफसाती रहती है वक्तव्य और दुहाई.
सभ्य होने का नाटक रचती
खोजने लगती है भीड़
वीरान रास्ता.
ताकि सृष्टिकर्ता के विधान को
कोसा जा सके यथासंभव.
प्रवक्ता मानवता के स्वयं से दूर छिटके-छिटके आईने में समाधान के
स्वयं का प्रगतिशील चेहरा देख हो लेते हैं संतुष्ट.
और साम्राज्य दरिंदों का
बढता ही जाता है लगातार.
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