Monday, September 21, 2009

अशोक आन्द्रे

बुढ़िया , किला और नारियल


गोले दागते नारियल के पेड़ झर रहे हैं ।
खामोश जातियों के खामोश किले
जंग लगे दरवाजों के पार
कुत्तों की भौंकती आवाज पर चौंक उठते हैं ।
कहीं कोई दृश्य उभरता नहीं है ,
रेतीले रास्ते ,
इधर -उधर फैल गये हैं ।
किले के दरवाजे
टूटी खिड़किओं से झांकते हैं कुछ ?
लेकिन नारियल के पेड़ झर रहे हैं ।

अचानक एक बूढी़ आत्मा
अपने को मैली - कुचैली धोती में छुपाए
लोहे के दरवाजे से देखती है कुछ ,
मानो शांत खडी
खोज रही है किसी को
न पाकर उदास हो जाती है
किले का दरवाजा बंद है
हवा में दहशत है,
क्योंकि नारियल के पेड़ झर रहे हैं ।

कुछ भी सामान्य नहीं है किले में
कुर्सी - मेजें तीन टांगों पर खड़ी
घूरती हैं मुख्य रास्ते को
जहां कभी कारवां गुजरता था
हाथिओं , घोडों तथा सैनिकों का दल ,
महल के मुख्य दरवाजे की ओर
बुढ़िया अभी भी ताक़ रही है खामोश
क्योंकि नारियल के पेड़ कुछ नहीं कहते,
सिर्फ झर रहे हैं लगातार ।

महल के दालान में
हाथी पर सवार दो मूर्तियां अभी भी
उसी दम -ख़म के साथ पहरा दे रही हैं ,
कोई पार नहीं कर सकता दालान को
मानो ! आज्ञा का इन्तजार अभी भी हो रहा है
मानो दोनों मूर्तियां रोक देंगी रास्ता हर आने वाले का
बुढिया अन्दर नहीं जा रही है
प्रवेश द्वार से घूरती है लगातार
एक द्वंद्व चल रहा है -
उस बुढ़िया तथा महल के बीच
पौधे , वृक्ष के नीचे कतार बांधे
लील रहे हैं शाम की डूबती धूप को
रात , लोहे के गेट से अन्दर आना चाहती है
महल के नीचे तहखानों में छिपी आत्मायें
करने लगी हैं हलचल
उनके इस शोर से सभी डरते हैं,
अगर नहीं डरता कोई तो वे नारियल के पेड़
जो झर रहे हैं आज तक ।

खामोश जातियों के खामोश किले
दम तोड़ने की कोशिश में
आंखों पर पट्टी बाँध चुके हैं ।
लेकिन बुढ़िया अभी भी झांक रही है
महल खामोश है सदियां चुप हैं
इतिहास भी खिसक गया है कहीं ,
दोनों मूर्तियाँ अभी भी पूरे किले की
मातम पुर्सी के लिए
महल के नीचे तहखानों में छिपी
आत्माओं को
न्योता दे रही हैं ।
तभी दबे पाँव बुढिया प्रवेश करती है .......
ठीक दालान के मध्य ,
झरता नारियल का पेड़ दाग देता है एक गोला ,
फैल जाते हैं इतिहास के पन्ने चारों ओर ,
कई चेहरे किसी एक चेहरे को उठाए
महल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगते हैं
मूर्तियां भी देती हैं रास्ता उनको
बुढ़िया तहखाने में छिपी आत्माओं के साथ
अदृश्य हो जाती है ,
नारियल फिर भी दागता रहता है गोला ,
क्योंकि बुढ़िया उन आत्माओं के साथ फिर - फिर
लौटेगी ,
क्योंकि उसके तथा महल के बीच चल रहा है द्वंद्व सदियों से ,
क्योंकि मूर्तियां तो हटेंगी नहीं
और रास्ते फैलते रहेंगे इसी तरह
हाँ , नारियल भी जरुर , दागता रहेगा गोला
ठीक , इसी तरह ।

2 comments:

सुभाष नीरव said...

भाई अशोक जी, आपकी यह कविता एक दृश्य की तरह आंखों के सामने से गुजरती जाती है- बूढ़ी औरत, नारियल के पेड़, पुराने किले ! पर कहीं अधिक सिम्बोलिक हो गई लगती है जिससे पाठक को इसके अर्थों तक पहुँचने में परेशानी हो सकती है।

रूपसिंह चन्देल said...

Priya Ashok,

Kavita apane andar gahan arth samete huye hai lekin yadi main bhi Subhash se ittefak rakhun to naraj nahoge ki ye arth pathak ke samane spast nahi ho pate. Rachana yadi pathak ke sir par se gujar jaye to voh kitane bhi gahan arth rakhati ho apana arth svayam kho deti hai. Yeh mera vinamra sujhav hai.

Chandel