Saturday, January 2, 2010

विजयकिशोर मानव की चार कविताएँ


किराये के घर
अलग - अलग घरों में
माँ ने जना हम सबको
मझोले शहर के एक दो मुहल्ले
और चार - पाँच घरों में

टूट गए घर किराये के
लेकिन हर झूटे हुए घर की डोर
नए से बाँध लेते रहे माँ - पिता
बधे रहे करीब - करीब आखिर तक
टूटे हुए लोग बने रहे हमारी पूरी उम्र
सगे रिश्तेदारों की श्रेणी में
माँ ने सहेजीं सहेलियाँ और
हम सब नहीं रहे मुहताज दोस्तों के

किराये के घरों में बिखरे
संस्कार ढेरों छोटे - बड़े
सौर से, कनटेदन , पट्टी पुजने
जनेऊ , गोद भरने और व्याह -- बधावे तक के
थापें माँ की दी पराई चौखट पर
पुताई की कई पर्तों के नीचे से
झाँकती - मुस्कराती हैं
जब कभी गुजर पड़ता हूँ उधर से

मैं आज पर आता हूँ
जन्मदिन होता है बेटी का , बेटे का
हर बार नए घर में
नहीं लिखा जाता व्यवहार कापी में
लेने का देने की ही तरह
नहीं होती पूरे खाने की दावत
नाचते हैं बच्चे किसी कैसेट के साथ
एक प्लेट में सजी होती है खानापूरी
घर के आसपास नहीं होते दोस्त
स्कूल जैसे पक्के - पुराने

पानी भरे जार की जलकुंभी
जड़ें सिर्फ तैरती हुई
पानी बदल जाता बार - बार
यादें ,संबंध ,दोस्त - यार और संस्कार
मेरे पास कुछ नहीं ठहरा उस तरह
जैसा किराये के घरों में भी
माँ -- पिता के पास से
पाया था हम सबने ...


सौ बरस
वह नहीं रहे
सौ के थे पूरे
वर्षों से हर साल छपती थीं ख़बरें
इनके इतना जीने की
असल में ख़बरों में ज़िंदा थे वह
वर्षों से चारपाई पर पड़े
कुछ न करते
चलती सांस के गुनहगार
बड़े ओहदे पर से उतरे
हो गए बीसियों - तीसियों बरस
किसी के लिए कुछ किये
देर से दिखते अटक - अटककर बोलते
बन गए उनके नाम के मुहल्ले
सड़कें गलियां कई उनके रहते
कपडे उतारता- पहनाता कोई
घर के लोगों को फुरसत होने तक
मैली - कुचैली पडी रहती काया
भूख भी लगती सबकी फुरसत देखकर
शुरू की उम्र चौथाई ऊंगली पकड़कर जीते
पाते आषीड्ढ हुलसकर दिए बुजुर्गो के
गदुद हो जाते थे हम भी
चौथाई उम्र बाद की काटते
पकड़े उंगली सबकी सांस लेते
ताने सहकर निरुत्तर जीते कातर
देखते सामने की आँखों में
अपनी मौत की उम्मीद
बैसाखियों पर टिकी उनकी उम्र
एक इतिहास कौंध जाता है मेरे भीतर
जब दादरी दे डालती है सौ बरस
उन्हें देखकर खिलखिला उठे दुधमुहें को


सच्चाइयाँ
मेरी अपनी अलमारी में
ऊपर के खाने में
पीके कोने में रखा
कागज का पुराना अधफटा टुकडा
किसी और की लिखावट का
किताबों के बीच
न दिखे , इस जतन से रखी डायरी और उसमें
पंखुरी -पंखुरी हो गया फूल
पिता का लिया क़र्ज़
चुकाने का बाद
हासिल हुए - इंतुल तलब रुक्के
क्यों डराते हैं मुझे ?
पत्नी और बच्चे के
अलमारी टूने पर
क्यों खीझने लगता हूँ मैं ?
मुझे पता ही नहीं चला
कब डर बन गयी
मेरी निजी सच्चाइयाँ !


शोक की श्रेणी

तुम्हें कोई याद नहीं आता
बड़े -बड़े पंख
ऊंची परवाज वाले कटते देखते
कमरे के घोंसले में
बच्चों को दाना चुगाकर जाती
गौरेया का पंखें से टकराकर
लहूलुहान होना
नहीं आता तुम्हारे शोक की श्रेणी में
नहीं फटा होता है
इज्जत लुटने की खबर लेकर आता
अखबार का कोना
कुछ नहीं होता भीतर तुम्हारे
पैरों तले कुचल जाने पर
गुलाब का छतनार फूल
फिर क्यों आना चाहिए
एक बड़े शोक की श्रेणी में,
कुछ भी न देख पाने वाली
तुम्हारी आँखों की रोशनी का जाना
डूब जाना संवेदनहीन
दिल की धड़कनों का अचानक
राष्ट्रीय शोक की श्रेणी में -
आनी चाहिए क्यों ? किसी एक अकेली मौत को
जो सचिवालय की ऊपरी मंजिल से
देख पाता था
सिर्फ हरियाली राजधानी की

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प्रकाशित कृतिया - राजा को सब क्षमा हैं (पहला ऋतुराज सम्मान ) , गाती आग के साथ (कृति सम्मान ,हिंदी अकादेमी ,दिल्ली ), आँखें खोलो ,नवगीत दशक - तीन के कवि , आंधी की यात्रा।
पिछले ३४ वर्षो से पत्रकारिता से सम्बंधित कई अखबारों से जुड़े रहे।
वर्तमान में हिन्दुस्तान टाइम्स की प्रमुख पत्रिका कादम्बिनी में कार्यकारी संपादक के पद पर आसीन ।
संपर्क -उत्सव ,सेक्टर सी - २०७ वसुंधरा , गा़जि़याबाद
0120-4101439
0120-2880378
9810743193

8 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

रूपसिंह चन्देल said...

प्रिय अशोक

मानव जी की सुन्दर कविताएं प्रकाशित करने के लिए बधाई. बहुत दिनों बाद उनकी कविताएं पढ़कर अच्छा लगा.

चन्देल

बलराम अग्रवाल said...

हम जैसे कस्बाई-संस्कारों से भरे लोगों को बचपन और गली-मुहल्ले में घुमा देने वाली सशक्त कविताएँ। बहुत-बहुत बधाई।

PRAN SHARMA said...

HAR KAVITA EK SE BADHKAR EK HAI.
KAVITAAON KAA POORA AANAND LIYA
HAI MAINE.BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.

Dr. Sudha Om Dhingra said...

सभी कविताएँ साथ बहा ले गईं,
अशोक जी अच्छी कविताएँ पढ़वाने के लिए बधाई.

महावीर said...

आदरणीय अशोक जी
मानव जी की सशक्त रचनाएं पढ़वाने के लिए धन्यवाद. पढ़कर आनंद आ गया.
महावीर शर्मा

रश्मि प्रभा... said...

har kavita apni mahatta darshati hai, prabhawshali arthon ko ek sashakt aayan deti hain

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

भावगर्भित अभिव्यक्ति के लिए मानव जी को हार्दिक साधुवाद!