Saturday, February 1, 2014

अशोक आंद्रे



अजनबी छुअन

जब भी अपनी महान खामोशियों में उसे ढूंढता
तेज आँधियों में उसका अस्तित्व
सूखे पत्तों की तरह
रेतीले सागर में कैसे खो जाते थे ?
उसकी सारी यात्राएं भी
प्रस्थान बिंदु की ओर क्यों लौटने लगतीं थीं?
समय की सरसराहट जरूर
जिन्दा होने का आभास देती थीं   
आखिर एक जिस्म ही तो था उसके पास  
 जो उन आँखों तक पहुंचाता था  
जिसे छूकर वह  
एक अजनबी छुअन की ताकत को महसूस करता था .
तब झील में गिरते पत्तों की खुशबू भी
किनारों को छूती हुई
जब भी लौटती
उसके अन्दर का जंगल
महकता हुआ
किसी तूफान की तरह  
चारों ओर से घेर लेता. 
जहां स्मृतियों के अथाह कोलाहल में
कितनी अनुभूतियाँ अनजाने ही
उसे छूने लगतीं.  
लगता जीवन कभी एकाकी नहीं हो सकता
क्योंकि विश्व की हर छुअन जो उसके साथ थी 
जहां कई रंगों में महकता जीवन
उनके बीच अद्भुत संरचना करता दिखाई देता है
लगता वहीं उसका भी कोई रंग अठखेलियाँ करता है  
जिसे अक्सर ढूंढता है मन की गहराइयों में   
फिर वे सूखे पत्तों की तरह
कैसे रेतीले सागर में खो सकते हैं ?
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13 comments:

रश्मि प्रभा... said...

जीवन कभी एकाकी नहीं होता, यादों की कई परतें एकांत में अपनी-अपनी बातें कहती हैं,एक अनदेखा स्पर्श भी अपनी उपस्थिति दर्ज करता है और कभी विरह के गीत दीवारों पर उगते हैं तो कभी पायल की छुन छुन मीठे जलतरंग -सी चांदनी बन चेहरे को हथेलियों में भर लेती है …
एकांत अक्सर जादूमय होता है, कोई हो न हो, कोई होता है

vijay kumar sappatti said...

आपकी कविता ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है . जीवन का रहस्य कई परतो में समाया हुआ रहता है . आपकी कविता उन परतो को खोलती है . शुक्रिया आपका

PRAN SHARMA said...

AJNABEE CHHUAN VAKAEE MAN KO CHHOOTEE HAI .UMDA KAVITA KE LIYE
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNAAYEN .

डॉ. जेन्नी शबनम said...

एकाकीपन में मन की अतल गहराइयों में जाने कैसे कैसे एहसास जन्म लेते हैं मानो हम एकाकी है ही नहीं, न हो सकते हैं... बहुत भावुक रचना, बधाई.

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी,
नमस्कार l
अभी आपके ब्लॉग पर जाकर मैंने आपकी कविता 'अजनबी छुअन ' पढ़ी l
भाव पुष्पों से गुंथी यह रचना अनुपम है और मन के अंतर को छूती है l
बहुत बधाई l
अशेष सराहना के साथ,
सादर,
कुसुम वीर

रूपसिंह चन्देल said...

भाई अशोक,

तुम्हारी अंतर्मन की पीड़ा को व्यक्त करती तुम्हारी कलम से एक और सशक्त कविता. बधाई.

रूपसिंह चन्देल

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी,
आपकी कई कवितायें पढ़ी, इतनी सुन्दर रचनायें पढवाने के लियें धन्यवाद।
शुभकामना सहित
बीनू भटनागर

Udan Tashtari said...

अद्भुत! वाह!

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी,

मन का एकाकीपन जब उदात्त के साथ जुड़ जाता है तो शक्ति बन जाता है- मनुष्य की, रचनाकार की। यह सकारात्मक दार्शनिक भाव आपकी कविता को एक अलग धरातल पर ले जाता है। बधाई।
"लगता जीवन कभी एकाकी नहीं हो सकता
क्योंकि विश्व की हर छुअन जो उसके साथ थी
जहां कई रंगों में महकता जीवन
उनके बीच अद्भुत संरचना करता दिखाई देता है
लगता वहीं उसका भी कोई रंग अठखेलियाँ करता है
जिसे अक्सर ढूंढता है मन की गहराइयों में
फिर वे सूखे पत्तों की तरह
कैसे रेतीले सागर में खो सकते हैं ?"

सादर


अनिलप्रभा कुमार

सुनील गज्जाणी said...

man ko mathti hui kavitaa , behad sunder . aabhar
saadhuwaad
saadar

inder deo gupta said...

कैडिलीस्कोप को आँख से लगाए जब घुमाते हैं, तब हर बार नवीन बहुरंगी पुष्प संरचना बनती है. कुछ इसी तरह की अनुभूति होती है एकाकीपन के दर्शन को समझाती इस रचना को पढ़ते हुए. पीड़ा भी सकारात्मक हो सकती है ....बहुत खूब बधाई।

Anonymous said...

श्री आंद्रे जी , आप की सारी कवितायेँ पढ़ गया. अच्छी लगी......नरेन्द्र निर्मल

Anonymous said...

भाई जी
आपने आम आदमी की व्यथा को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है।
सुधा भार्गव