Friday, January 16, 2015

अशोक आंद्रे


दरिन्दे
दरिन्दे
करीब की दुनिया में
अँगुलियों की नोक पर टिकाये,

सधे हुये शब्दों की
तासीर में
छुआ देते हैं मरघट की आग.

भीड़ बेचारों की  
छिपाये आक्रोश को जेब में  
फुसफसाती रहती है वक्तव्य और दुहाई.
सभ्य होने का नाटक रचती  
खोजने लगती है भीड़  
वीरान रास्ता.

ताकि सृष्टिकर्ता के विधान को
कोसा जा सके यथासंभव.
प्रवक्ता मानवता के स्वयं से दूर छिटके-छिटके   
आईने में समाधान के
स्वयं का प्रगतिशील चेहरा देख हो लेते हैं संतुष्ट.  

और साम्राज्य दरिंदों का
बढता ही जाता है लगातार.
      ******

14 comments:

Anonymous said...

सार्थक प्रस्तुति।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

ashapandeyojha.blogspot.com said...

बहुत ही सार्थक व समयानुकूल रचना है स्त्री वादी चिंताओं को अभिव्यक्त करती सशक्त रचना

PRAN SHARMA said...

Bahut Dinon Ke Baad Ek Achchheee
Kavita Padhne Ko Milee Hai . Bhasha Aur Bhaav Donon Hee Behtreen hain . Badhaaee Aur Shubh
Kamna

रश्मि प्रभा... said...

दरिंदों के बीच असली पहचान भी शक के दायरे में है

Anonymous said...

आपकी कविता पढ़ ली हॆ. कई पंक्तियां बेचॆन करने वाली हॆं. बधाई.
दिविक रमेश

Kavita Vachaknavee said...

आपकी कविता पढ़ी। सार्थक व अच्छी लगी। बधाई। आपकी कलम यों ही अनवरत सार्थक रचनाएँ रचती रहे।

Pratibha Verma said...

सुन्दर प्रस्तुति।

डॉ. हीरालाल प्रजापति said...

सही

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी,
आपकी कविता " दरिन्दे " बहुत ही सारगर्भित, सत्यपरक, सुन्दर रचना है l
इस भाव पूरित सामयिक रचना के लिए अशेष
सराहना स्वीकार करें l
सादर,
कुसुम वीर

Anonymous said...

दरिंदों के बढ़ते जाने पर धारदार व्यंग संधान करती एक सार्थक कविता।
प्रिय अशोक जी, बधाई।
इंद्र सविता

Anonymous said...

प्रिय श्री आन्द्रे जी,
विषय जो आपने चुना वह सम-सामयिक भी है और भयावह भी | प्रस्तुति आपकी प्रशंसनीय तो है ही | यह ऐसी समस्या बनती जा रही है जो हमारे तथा-कथित स्वयंभू नेताओं की देन हैं | सत्ता और पैसा इनको इतना अंधा बना देता है कि दूसरों के जीवन का इनके लिये कोई मूल्य ही नहीं रह जाता | जो समझदार हैं उनके लिये तुलसीदास ने कहा था- समुझि सभै सीख देत न कोई, बुध समाज बड़ अनुचित होई |

पी एन टण्डन

Anonymous said...

अशोक जी,
सत्य को अभिव्यक्ति देती एक सशक्त कविता!
सादर
अनिलप्रभा कुमार

सुधाकल्प said...

इस कविता में कवि ने बड़ी भावुकता से कड़वे तथ्य को उजागर किया है जो समाज में यथार्थता की कसौई पर खरा है। सच में मुसीबत आने पर ही अपने और पराए की पहचान होती है। परायों की दी पीड़ा तो सह ली जाती है पर अपने ही जब अपने व्यवहार और वाणी से मीठी चिंगारियाँ छिटकाते हैं तो मृत्यजन्य पीड़ा अंग अंग में समा जाती है। वे तो चले जाते हैं पर अपने पीछे बहुत कुछ समझने और सोचने को छोड़ जाते हैं। सुंदर काव्यात्मक अभिव्यक्ति !

Anonymous said...

सृष्टिकर्ता के विधान को कोस कर अपने मन का संताप और भड़ास दूर किया जा सकता है विपदा से छुटाकारा या समाधान संभव नहीं. दरिंदों का साम्राज्य सृष्टिकर्ता की पीठ पर बन्दूक रख कर बढ़ाया जा रहा है. और हम सभी सभ्य होने के ढोंग में बस दुहाई दे कर रह जा रहे हैं. विचारपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई.
डॉ जेनी शबनम