Wednesday, May 20, 2015

अशोक आंद्रे

एक सलीब और 

पराभूत होती जिंदगियां
विषाद को पीठ पर लादे
सिर कटी देह
व्यस्त चौराहों पर
समय के सलीब पर लटकी हैं.

शब्द हीन प्रणय की प्रार्थना करती
खामोश हो
अनंत गहराइयों में
रोपती हैं बीज,
आदमी है कि
अहं के दरवाजे उघाड़
विजय घोष की तस्वीर उकेरते ही
घबराहट की धार पर
शमशानी परिवेश के
रचने लगता है पन्ने,

सुनो, जंगल दहाड़ रहा है
पेड़ों को अपंग  कर
बिलखते पत्तों की रुदन
पृथ्वी को थरथराते हुए.
हाँ,बहती नदी को भी
अब घूरने लग गये हैं नियोजक-नियंता
क्योंकि उन्हें पता है कि
अब नहीं लौटेंगी
पराभूत होती जिंदगियां.
        ******


 

8 comments:

PRAN SHARMA said...

Ashok Ji , Bahut Dinon Ke Baad Aapki Marmik Kavita Padhee Hai .
Thode Shabdon Mein Aapne Bahut
Kuchh Kah Diya Hai . Badhaaee
Aur Shubh Kamna .

रश्मि प्रभा... said...

समय के सलीब पर - जाने कितना कुछ

अनिलप्रभा कुमार said...

आंद्रे जी, इतनी घनघोर निराशा!!
कलम में शक्ति होती है। रास्ता बदल कर ज़रा उस शक्ति का आहवान तो कीजिए। सलीबें टूट जाएंगी।:)

Anonymous said...

reallly blows you out of your shell. look forward to more such poems.
Harish Chandra

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी,
अद्भुत बिम्बों को उकेरकर अंतर को स्पर्श करती, मार्मिक रचना l
कहीं गहरे छू गई मन को आपकी यह अप्रतिम रचना l
बधाई एवं सराहना स्वीकार करें l
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ,
सादर,
कुसुम वीर

Anonymous said...

अशोक जी,

आजादी के बाद से ही सीमाओं से संसद तक भारत गायब है. युवा वर्ग से उम्मीद थी लेकिन वो भी धर्म जाति के नाम पर गंदी राजनीति देख, देशहित और देश प्रेम से दूर छिटकता चला गया है और सोचता है, " कोऊ नृप होए, हमें का हानि " .
हर डाल पर उल्लू को बैठा देख कर, स्वाभाविक है, घोर निराशा के बादल कलमकार को भी घोर गर्त में धकेल दें । सलीब पर सिर कटी लाश, शायद जनतंत्र की है और लटकाने वाला अराजकता का दानव.....लेकिन … "दर्द का हद से गुजर जाना, है दवा हो जाना", हो सकता है पानी जब सिर से गुजरने लगेगा, तब सांस के लिए छटपटाता अस्तित्व, स्वत: समाधान की उंगली पकड़ा दे। जीर्ण-क्षीण कलम का योगदान, तब भी वांछनीय और सराहनीय होगा। आवश्यकता है, रिंग में अंत तक डट कर प्रयासरत रहने की ।
-इन्द्र सविता

Anonymous said...

बहुत संवेदनशील सुन्दर रचना के लियें बधाई
बीनू भटनागर

सुधाकल्प said...


कविता –एक सलीब और
कविता करुण रस से ओतप्रोत है। सुधि पाठक इसे पढ़कर दुख की खाई में जा पड़ता है जहां वह घायल पंछी की तरह छटपटा कर रह जाता है।
कवि इस कविता द्वारा चेतना के स्वरों को सशक्त करने का प्रयास भी करता है कि अपनी जीत के उन्माद में भरा आदमी न तो दुख को समेटे हारी हुई जिंदगियों की सिसकती आवाज को सुनना चाहता है और न ही नष्ट की हुई प्राकृतिक संपदा की कराहट को। बस वह तो आगे बढ़ना चाहता है पर ये सिसकियाँ और कराहट एक न एक दिन रंग जरूर लाती हैं। भूचाल,भूस्खलन,बाढ़,अकाल के रूप में प्रकृति का प्रकोप फूट पड़ रहा है जिसकी पृष्ठभूमि खुद बुद्धिजीवी का ताज पहने आदमी की है । आश्चर्य !फिर भी वह पीछे हटने को तैयार नहीं।
सच में---न जाने अभी और कितनी जिंदगियाँ सलीब पर लटकी नजर आएंगी।
कविता का सार उसके शीर्षक में ही झिलमिला रहा है जो उसका काव्य सौंदर्य है। इतनी सार युक्त काव्य शैली से परिपूर्ण कविता पढ़ने को मिली इसके लिए अशोक जी का धन्यवाद।