इसी
क्रम में
उनका
मानना है कि वे
धरती
को संवार रहे हैं
इसी
क्रम में उन्होंने
सबसे
पहले जंगलों को उजाड़ना शुरू
किया
फिर
लहलहाती नदियों को बांधना
शुरू लिया
बंधनवार
तो सज गये
लेकिन
नदियाँ कहाँ चली गईं?
उसका
पता
किसी
के पास नहीं है
गिद्ध
दृष्टि तो उनकी चारों ओर
अपनी
पकड़ बना रही थी
उन्हें
तो धरती को सजाना था
चारों
तरफ निगाह डाली
जा
सकती थी जहां तक
जीव-जंतु
तो भाग गये
उनके
पीछे डर को तैनात कर दिया
इससे
भी उनका मन शांत नहीं हो रहा
था
तभी
पहाड़ों की तरफ देखा
फिर
जड़ों की ओर देखा
पहाड़
सहम गये
सिर
झुकाने को तैयार हो गये अचानक
जमीं
धसे पत्थर उसको आहत कर रहे
थे.
आखिर
धरती को संवारने का मुद्दा
महत्वपूर्ण था
वे
भूल गये कि अगर
शरीर
में से हड्डी को निकाल दोगे
तो
शरीर
का क्या होगा ?
ये
पत्थर ही तो हैं उन हड्डियों
की तरह हैं जो
धरती
को संभाल रहे हैं सदियों से
मनुष्य
तो स्वार्थी है न
दौड़
पड़ा आकाश कि ओर
धरती
तो धरती
क्या
होगा अब आकाश का ?
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11 comments:
उत्तम ! अति उत्तम !!
उत्तम कविता है। विषय चिंता का है पर विकास करने के लिए लोग विनाश करना आवश्यक सा बना रहे हैं।
खूबसूरत रचना
बीनू भटनागर
धन्यवाद। समय की बेहरमी को उकेरती एक सावधान कविता।
दिविक रमेश
बन्धु ,
मैंने लगभग सारी कविताएँ जो ब्लॉग पर उपलब्घ थी पढ़ी .आपकी कविताओं में जो अच्छी चीज मुझे लगती है , वह है अहसास की सिद्दत (intensity) ..बिम्ब भी उस सिद्दत को प्रेषित करने की कूवत रखते है.
ताजी कविता बहुत ही मोजू संकट पर है. उसके लिए साधुवाद.
हरीश चन्द्र
आदरणीय अशोक जी,
आपने सच्चाई को उकेरती बहुत ही भावगर्भित और सारगर्भित कविता लिखी है,
जो मन को झकझोर कर सोचने को बाध्य करती है।
हार्दिक बधाई और सराहना स्वीकार करें।
सादर,
कुसुम वीर
इंसान की महत्वाकांक्षाएँ क्या नहीं करेगी. प्रकृति को विकृत करती जा रही है. संजीदा होकर सोचने और विमर्श करने लायक है रचना. उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई अशोक जी.
धरती तो धरती
क्या होगा अब आकाश का ?
बहुत बड़ा और नितांत सामयिक सवाल खड़ा करती बेहतरीन कविता। बधाई भाईसाहब।
ऐसा भी क्या विकास जिसके लिये पृथ्वी का अविवेकपूर्ण दोहन, प्राण का आधार ही क्षरित कर दे। कवि की बेचैनी शायद आदमी को सचेत कर दे। बहुत ही समसमयिक और ज्वलंत रचना।
सामयिक चिंता पर एक सार्थक अभिव्यक्ति।
अनिल प्रभा कुमार
यथार्थता के धरातल पर खड़ा कवि धरती के दोहन को देख व्यथा से भर उठा है जिसे उसने बड़ी सूक्ष्मता,भावुकता व कुशलता से कविता में ढाला है. स्वार्थ के पहिए को अनवरत आगे बढ़ता देख उसने मनुष्य को एक तरह से उसके भयानक परिणामों के प्रति आगाह भी किया है।सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
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