Monday, February 2, 2009

अशोक आन्द्रे



खिलाफ अंधेरे के

झुकी हुई आंख तुम्हारी

ऊपर उठकर

सामने घाटी के बीचों - बीच

दृश्यावलोकन करेंगी जब

ठीक उस वक्त

झोंपड़ियों के सिरे से

उठने लगेगा धुआं ।

और बच्चे अपनी - अपनी मां की गोद से

निकलकर भागने लगेंगे बाहर की ओर

खिलाफ अंधेरे के ,

जड़ों से निकलती हरियाली की तरह

खिलखिलाते हुए ।

पता है उनको

घर के सारे बर्तन उलटे पड़े हैं ।

एक इन्तजार........शायद

मुर्गी ने कुछ अंडे दे दिये होंगे

उबालकर जिन्हें , उनकी मां

रखेगी सहेज कर

लार टपकाती बिल्ली से दूर ,

कि बच्चे जब तक लौटेंगे ,

उसके गर्भ से

एक और फूल खिलकर

धुआंती सांसों के बीच

पूरी घाटी को

आतंकित कर जायेगा ,

कि उनका भविष्य

भूत से ही

मांग रहा होगा ,

थोड़ी - सी आंच ,

ताकि पलाश के

दहकते अंगार को

हवा दी जा सके ,

ताकि लार टपकाती बिल्ली को

उबले हुए अंडों से ,

दूर किया जा सके ।


फुनगियों पर लटका एहसास



आँख बन्द होते ही

एहसासों की पगडण्डी पर

शब्दों का हुजूम

थाह लेता हुआ बन्द कोठरी के

सीलन भरे वातावरण में

अर्थ को छूने के प्रयास में

विश्वास की परतों को

तह - दर -तह लगाता है

जहाँ उन परतों को छूने में , हर बार

पोर - पोर दुखने लगता है ।

सनाका खाया आदमी

सन्नाटे की सुलगती आँच पर

अपने ही व्यामोह में फँसकर

बौना हो जाता है लगातार ,

इसी प्रक्रिया से गुजरता हुआ वह

अपने ही विश्वासों की

परतों को कुतरने लगता है

सयाने चूहे की तरह !

और उम्र की घिसी कमीजों को

परचम की तरह लहराकर

ऊँचाई और गहराई के मध्य

फुनगियों पर लटके एहसासों को

नोंचने लगता है ।

आखिर विश्वास की कोई हरी पत्ती तो

थामी होती उसने

ताकि कंकरीट के सहारे खड़े होते इस शहर के बीच

जंगल का एहसास

अंदर की कार्बनडाइआॉक्साइङ को

खण्ड - खण्ड कर

विश्वास के साबुत अर्थों के तकिये पर

चैन की नींद तो सोने देता उसको -

ओ मेरे जनसामान्य !

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