Saturday, February 7, 2009

अशोक आन्द्रे

आतंरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर


जाता हुआ व्यक्ति / कई बार फिसल कर


शैवाल की नमी को छूने लगता है ।


जीवन खिलने की कोशिश में


आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में


अपने ही घर के रोशनदान की आँख को


फोड़ने लगता है।



मौत जरूर पीछा करती है जिवात्माओं का


लेकिन जिंदगी फिर भी पीछा करती है मौत की -


गांठने के लिये सवारी ।


सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को


उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है ।


कई बार उसे पूर्वजो द्वारा छोड़े गये ,


सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को ,


गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है ।


जबकि समुन्द्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए


चिंघाड़ता है अहर्निश ।



आख़िर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है


इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे


चाहे शुरू का हो या फिर / अन्तिम यात्रा की बेला का ,


क्योकि कंपन की लय / टिकने नहीं देगी उसे ,


जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा


उत्तेजित करता रहेगा चीखने - चिल्लाने के लिए


शायद उसके आतंरिक सुकून के लिये ।



बुलंदियों को छूते हुए


बुलन्दी को छूने का अर्थ


कितना सहज होता होगा


उन लोगों के लिए ,


जिनका सोचना


सोचने से पहले / चुप्पी साध लेना ।


जैसे आंधी के बाद


झोंपड़ियों का यथार्थ हो जाना


जैसे सत्तर को छूते शरीर का


अपने ही मकड़ - जाल में उलझ जाना ,


यानी बलात्कार के बाद


खुली खिड़की से


सुनसान , बेखबर


सड़क को सड़क से जानना ।


और फिर


आकाश को देख


ठंडी सांस लेना


यानी हजारों - हजार के खून को


ठंडी बोतल में भरकर


कोरे कागज पर


लम्बे भाषणों को तैयार करना


उस व्यक्ति के बारे में


जिसे समय की जरुरत (घोषित कर)


उसके कंकाल से


युद्ध सामग्री तैयार करना


और समय के साथ


बहती चीखों के विपरीत


ऐतिहासिक प्रतिध्वनियों को


दस्तावेज के तहत दीवारों पर


अंकित करते हुए


सन्नाटा हो जाना ।


हां ! कितना सहज होता होगा ,


इस तरह बुलन्दियों को छूते हुए


सोचने के साथ


महान हो जाना ।

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