Thursday, February 19, 2009

रूपसिंह चन्देल की दो लघुकथाएं


कुर्सी संवाद
कॉफी हाउस की दो अलग मेजों के साथ रखी दो कुर्सियों को बेयरे ने उठाकर खुली छत पर आमने-सामने रख दिया. काफी देर तक चुप रहने के बाद एक ने दूसरे से पूछा - "बहन, बहुत दुखी दिखाई दे रही हो."

"बात ही कुछ ऎसी हो गई है." उसका स्वर भीगा हुआ था.

"क्यों क्या हुआ ?"

"मैं अपवित्र हो गई हूं."

"क्या बात कह रही हो, बहन."

"मैं सच कह रही हूं-----."

"आखिर हुआ क्या?"

"मुझे यहां आए चार साल हुए----- आज तक यहां आने वालों में साहित्यकार, कलाकार ही होते थे, लेकिन आज-----."

"आज क्या----?"

"आज------ आज एक नेता यहां आया और पूरे डेढ़ घण्टे तक जमकर मुझ पर बैठा रहा-----मैं तो कहीं की न रही, बहन." वह फफक उठी.

दूसरी की आंखें भी गीली हो गयीं, क्योंकि उसे अपनी पवित्रता भंग हो जाने की चिन्ता सताने लगी थी.

( १ जनवरी,१९८५)


निराशा

उस दिन मोहल्ले में एक खतरनाक वारदात हो गयी थी. किसी सिरफिरे ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी. चारों ओर सनसनी फैली हुई थी और पुलिस की गश्त जारी थी. बाजार बन्द था. सारा दिन गुजर चुका था, लेकिन सड़क में गश्ती सिपाहियों के अलावा किसी आदमी की शक्ल दिखाई नहीं पड़ी थी. कभी कभार कोई कुत्ता दुम हिलाता हुआ अवश्य गुजर जाता था.

वह सुबह से ही इन्तजार कर रही थी कि शायद कोई आ जाये, लेकिन सारा दिन खाली बीत गया था. इस समय उसकी जेब में दस-दस पैसे के मात्र पांच सिक्के पड़े थे और वह सुबह से ही भूखी थी. वह निराश होकर पलंग पर लेट गयी और सिपाहियों और कातिल को मन ही मन कोसने लगी . उसे अभी भी आशा थी कि शायद कोई ग्राहक सिपाहियों की नजर बचाकर आ जाये. उसके कान जीने की ओर लगे हुए थे. एक बार उसे लगा कि कोई जीना चढ़ रहा है. वह हड़बड़ा-कर उठ बैठी . शीशे के सामने जाकर बाल और कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन तब तक आगन्तुक दो बार दरवाजा खटखटा चुका था. उसने खुश मन से दरवाजा खोला. आने वाला, गश्ती पुलिस का एक सिपाही था.

वह घबड़ायी-सी एक ओर हटकर खड़ी हो गयी. सिपाही ने मुड़कर दरवाजे की कुण्डी चढ़ा दी और बोला, "घबड़ाओ नहीं, मैं तो यह देखने आया हूं कि तुमने कॊई ग्राहक तो नहीं छुपा रखा." और वह उसकी बांह पकड़कर अन्दर की ओर ले गया. वह कोई प्रतिरोध नहीं कर पायी. थोड़ी देर बाद सिपाही के वापस लौट जाने पर दरवाजा बन्द कर वह पलंग पर ढह गयी. अब वह और अधिक जिराश थी, क्योंकि उसकी जेब में अभी भी दस-दस के पांच सिक्के ही पड़े थे और उसे बहुत जोरों से भूख लगी हुई थी.

(१९८४)


रूपसिंह चन्देल माइकी के साथ
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
दो चिट्ठे-
रचना समय और वातायनसंप्रति: roopchandel@gmail.com roopschandel@gmail.com

Sunday, February 15, 2009

अशोक आंद्रे



माँ के लिए
(१)

माँ ! तब भी तुम विद्यमान थी

कुछ नहीं था जब
इस संसार में

ब्रहम्मांड में तुम्हारी कोख ब्लैक होल की तरह

बिग - बेंग की रहस्यता को समेटे

विश्व को नया सृजन देने का सार्थक प्रयास कर रही थी ।

माँ ! मैं अजन्मा

विश्व के तरंगित वलयों में

निजता के लिए रास्ते खोज रहा था ,

तब अँधेरा घना था

खामोशियों की तह में दबी

इच्छाओं का दैहिक रूप ले रहा था विस्तार

माँ ! उस विस्तार को जना है तुमने

इस धरा की पहली किरण ने

अस्पष्ट फुसफुसाहटों को

अर्थ देने की कोशिश में बताया था मुझे ।

यह भी सच है कि उस वक्त

घबराहट के दैत्य असंख्य रूप धर रहे थे ,

तुम्हारी छाती को प्रथम ज्वार - भाटा के लिए

कर रहे थे तैयार ।


सवाल ज्वार - भाटा का नहीं था

कुछ था तो सिर्फ़ -

मेरे आकार को भू पर उतारने का था .....

तुम्हारे भागीरथ प्रयास का ही तो नतीजा हूँ में

तभी तो ईश्वर की आँखे चमक उठी थीं ,

बादलों ने गड़गड़ाहट के नगाड़े बजाये थे

ओर घाटियों ने फूलों के कालीन बिछाये थे ;

नदियाँ कल - कल करतीं वीणा के तारों को

झंकृत कर रही थीं अनवरत ......

आख़िर मेरे वजूद का सवाल अहम् था माँ तुम्हारे लिए

युगों - युगों तक धारण करती रही हो मुझे

मेरे ही वजूद की खातिर ।


(२)

गंतव्य तक पहुंच कर

किसी अंधे कुँए में झांकते हुए

अपने प्रतिबिम्ब को देखना

कृति हो सकती है / अनाम , अनजानी शक्ति की

लेकिन माँ के इच्छित हस्तक्षेप के बिना

उस कृति का समरूप

किसी पोखर में अनंत युगों से

ठहरे हुए पानी की सड़ांध के सिवाय

भला और क्या हो सकता है ?

Saturday, February 7, 2009

अशोक आन्द्रे

आतंरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर


जाता हुआ व्यक्ति / कई बार फिसल कर


शैवाल की नमी को छूने लगता है ।


जीवन खिलने की कोशिश में


आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में


अपने ही घर के रोशनदान की आँख को


फोड़ने लगता है।



मौत जरूर पीछा करती है जिवात्माओं का


लेकिन जिंदगी फिर भी पीछा करती है मौत की -


गांठने के लिये सवारी ।


सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को


उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है ।


कई बार उसे पूर्वजो द्वारा छोड़े गये ,


सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को ,


गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है ।


जबकि समुन्द्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए


चिंघाड़ता है अहर्निश ।



आख़िर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है


इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे


चाहे शुरू का हो या फिर / अन्तिम यात्रा की बेला का ,


क्योकि कंपन की लय / टिकने नहीं देगी उसे ,


जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा


उत्तेजित करता रहेगा चीखने - चिल्लाने के लिए


शायद उसके आतंरिक सुकून के लिये ।



बुलंदियों को छूते हुए


बुलन्दी को छूने का अर्थ


कितना सहज होता होगा


उन लोगों के लिए ,


जिनका सोचना


सोचने से पहले / चुप्पी साध लेना ।


जैसे आंधी के बाद


झोंपड़ियों का यथार्थ हो जाना


जैसे सत्तर को छूते शरीर का


अपने ही मकड़ - जाल में उलझ जाना ,


यानी बलात्कार के बाद


खुली खिड़की से


सुनसान , बेखबर


सड़क को सड़क से जानना ।


और फिर


आकाश को देख


ठंडी सांस लेना


यानी हजारों - हजार के खून को


ठंडी बोतल में भरकर


कोरे कागज पर


लम्बे भाषणों को तैयार करना


उस व्यक्ति के बारे में


जिसे समय की जरुरत (घोषित कर)


उसके कंकाल से


युद्ध सामग्री तैयार करना


और समय के साथ


बहती चीखों के विपरीत


ऐतिहासिक प्रतिध्वनियों को


दस्तावेज के तहत दीवारों पर


अंकित करते हुए


सन्नाटा हो जाना ।


हां ! कितना सहज होता होगा ,


इस तरह बुलन्दियों को छूते हुए


सोचने के साथ


महान हो जाना ।

Tuesday, February 3, 2009

अशोक आन्द्रे

धर्म और संस्कृति

एक हताश फटी रोशनी के बीच

कुछ शब्द

कैद कर रखे है संस्कृति के तुमने

दम तोड़ते हुए

अँधेरे बंद गलियारों के मध्य

जहाँ धर्म

रोशनी के चेहरे पर

कालिख पोत देता है ।

अगर ऐसा नहीं होता तो कैसे

एक ही धर्म के दो व्यक्ति

जान के प्यासे हो गये

और उँगली को संस्कृति के

पेट में घुसेड़

वर्तमान की लड़ाई को

अतीत के अप्रिय धब्बों में छिपाए

सफेद पन्नों पर स्याह-सफेद करते रहे

और धर्म की आड़ में

संस्कृति की फाख्ता काटकर

विजय -दुंदुभी बजाते रहे ?

जबकि इतिहास गवाह है , कि

संस्कृति धर्म से ऊपर होती है

अरे पागलो ! हत्यारों की भी

कोई संस्कृति होती है !

बुढ़ापा

सन्नाटा है !

पता नहीं क्यों

किस बात का भय

साँस लेता है

शिराओं में

जिन्दगी का फलसफा

एक - एक कर

आत्महत्या कर रहा है

हृदय की गोधूली का द्वन्द्व

आँखें फाड़े

बुझती आँच पर

धुआँ - धुआँ होता है

यह उम्र का अँधेरा है

जो , अब गहराने लगा है ।

Monday, February 2, 2009

अशोक आन्द्रे



खिलाफ अंधेरे के

झुकी हुई आंख तुम्हारी

ऊपर उठकर

सामने घाटी के बीचों - बीच

दृश्यावलोकन करेंगी जब

ठीक उस वक्त

झोंपड़ियों के सिरे से

उठने लगेगा धुआं ।

और बच्चे अपनी - अपनी मां की गोद से

निकलकर भागने लगेंगे बाहर की ओर

खिलाफ अंधेरे के ,

जड़ों से निकलती हरियाली की तरह

खिलखिलाते हुए ।

पता है उनको

घर के सारे बर्तन उलटे पड़े हैं ।

एक इन्तजार........शायद

मुर्गी ने कुछ अंडे दे दिये होंगे

उबालकर जिन्हें , उनकी मां

रखेगी सहेज कर

लार टपकाती बिल्ली से दूर ,

कि बच्चे जब तक लौटेंगे ,

उसके गर्भ से

एक और फूल खिलकर

धुआंती सांसों के बीच

पूरी घाटी को

आतंकित कर जायेगा ,

कि उनका भविष्य

भूत से ही

मांग रहा होगा ,

थोड़ी - सी आंच ,

ताकि पलाश के

दहकते अंगार को

हवा दी जा सके ,

ताकि लार टपकाती बिल्ली को

उबले हुए अंडों से ,

दूर किया जा सके ।


फुनगियों पर लटका एहसास



आँख बन्द होते ही

एहसासों की पगडण्डी पर

शब्दों का हुजूम

थाह लेता हुआ बन्द कोठरी के

सीलन भरे वातावरण में

अर्थ को छूने के प्रयास में

विश्वास की परतों को

तह - दर -तह लगाता है

जहाँ उन परतों को छूने में , हर बार

पोर - पोर दुखने लगता है ।

सनाका खाया आदमी

सन्नाटे की सुलगती आँच पर

अपने ही व्यामोह में फँसकर

बौना हो जाता है लगातार ,

इसी प्रक्रिया से गुजरता हुआ वह

अपने ही विश्वासों की

परतों को कुतरने लगता है

सयाने चूहे की तरह !

और उम्र की घिसी कमीजों को

परचम की तरह लहराकर

ऊँचाई और गहराई के मध्य

फुनगियों पर लटके एहसासों को

नोंचने लगता है ।

आखिर विश्वास की कोई हरी पत्ती तो

थामी होती उसने

ताकि कंकरीट के सहारे खड़े होते इस शहर के बीच

जंगल का एहसास

अंदर की कार्बनडाइआॉक्साइङ को

खण्ड - खण्ड कर

विश्वास के साबुत अर्थों के तकिये पर

चैन की नींद तो सोने देता उसको -

ओ मेरे जनसामान्य !

Sunday, February 1, 2009

सवाल -अशोक आन्द्रे

आदिकाल से हरिकथा अनंत के सहारे
अपने ही स्वरुप को पहचानने की कोशिश करता रहा हूँ ।
सवाल तो सवाल ही होता है,
पहेलियों की तरह
शिशु अवस्था की तरह उलझा,
फिर भी कोशिश करता हूँ पहचानने की स्वयं को
शायद पकड़ में आ सके कुछ ,
लेकिन स्पर्श पाते ही
टूटने लगता है निज का स्वरुप
टपाटप सवाल तब कमान साधने लगते है अज्ञात की ओर
सवाल तब भी उठते है ,
जब दक्षिणी ध्रुवों की तरह बर्फीली धार
छूते हैं मन ,
धुआँ - धुआँ हो जाता हूँ मैं ।
हे देव ! तुम्हारी कथा की अनंतता की जगह ,
अंत का छोर फैलने लगता है
कमजोर होते दृग , भेदने लगते है आकाश को तब ।
सब जगह व्याप्त है , ऐसा माँ से सुना था ।
अंदर - बाहर सब जगह तुम्हीं हो ,
अगर हो ? तो मैं कमजोर क्यों हो जाता हूँ लगातार ,
ओर क्यों होने लगता है पाप का विस्तार ,
कहीं ऐसा तो नही कि अपने कमजोर अस्तित्व को
छिपाने के लिये , चस्पां कर देते हो मुझ पर ,
यह सारी अनंत कथाएं
हे देव.........!

अशोक आन्द्रे

कविता

(१)

हवा चली

निगाह लौटी

दीया बुझा

परदा खामोश -

सिहर गई , कुर्सी बरामदे की ।

(२)

बादल गरजा

धूप सोखी

पेड़ चीखे

बीज सहमा

सपने कुलबुलाये -

भीज गई धरती सारी ।

(३)

जब नहीं था शब्द

ध्वनि थी उस वक्त

अनर्थ नहीं था तब

अर्थ के साथ,

नाचते थे तब ध्वनि के संग

अंतस के शब्द ।

असहज

पता नहीं क्या

खोजता रहा

हथेलियों की बीहड़

रेखाओं के मध्य ,

रात उठी ......और चली गई ।

जिद

रोशनी को तलाशता

एक पहाड़ से-

दूसरे पहाड़ के पीछे भागा

लोग चीखे

धुंध छटी

पत्थर लुढ़का

बिखर गया सन्नाटा, चारों ओर ।

अशोक आन्द्रे

तलाश

(१)

सदियों से लगातार आज तक

आदि और अंत के बीच

करता रहा तलाश , एक घर की

और समय के साथ

मांस और मज्जा के बीच की

तलहटियों में ,

खोता रहा

घर के सपनों को , लगातार

(२)

रात की तरह समय

अपनी पहचान कराते हुए

पूरे खौफ के साथ

श्मशान के पूर्वी हिस्से में

पालथी मारकर

बैठ गया था ।

हम सहज ही

मेले में

खोये हुए बच्चे की तरह

करते रहे तलाश एक अंगुली की

अपने ही आसपास - ताउम्र ।



दुःस्वप्न

एक गलियारे से

दुसरे गलियारे में जाता हुआ आदमी

मृगजाल में ठिठकता है ,

सपने लुभाते हैं उसे,

विस्फोट से पहले

दहकते पलाशों में

चमकते गलियारों में ।

लेकिन नन्ही चिड़िया सहम जाती है

उसके हाथ में ,

हरी पत्ती देखकर ।