Monday, June 13, 2011

अशोक आंद्रे

बाबा तथा जंगल

परीकथाओं सा होता है जंगल
नारियल की तरह ठोस लेकिन अन्दर से मुलायम
तभी तो तपस्वी मौन व्रत लिए
उसके आगोश में निरंतर चिंतन मुद्रा में लीन रहते हैं
बाबा ऐसा कहा करते थे.
इधर पता नहीं वे, आकाश की किस गहराई को छूते रहते
और पैरों के नीचे दबे -
किस अज्ञात को देख कर मंद-मंद मुस्काते रहते थे
उन्ही पैरों के पास पडीं सूखी लकड़ियों को
अपने हाथों में लेकर सहलाते रहते थे.
मानो उनके करीब थकी हुई आत्माएं
उनकी आँखों में झांकती हुई कुछ
जंगली रहस्यों को सहलाती हुई निकल रही हैं.
फिर भी वे टटोलते रहते थे जीवन के रहस्य
उन्ही रहस्यों के बीच जहां उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात.
उनके करीब पहाड़ फिर भी खामोश जंगल के मध्य
अनंत घूरता रहता था.
यह भी सच है कि जंगली कथाओं की परिकल्पनाओं से बेखबर
मंचित हो सकने वाले उनके जीवन के अध्याय

अपनी खामोशी तोड़ते रहते,
ताकि उनका बचपन-
उनके अन्दर उछल कूद करता
जंगल को उद्वेलित कर सके
ताकि वे अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --सिवाय अंत के .

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14 comments:

रश्मि प्रभा... said...

in parikalpnaaon mein aapki soch ka anant vistaar dikhta hai...

Narendra Vyas said...

बेहद बोद्धिकता और चिंतन से परिपूर्ण कविता पढ़ने को मिली. ऐसी कविताएँ बेहद कम पढ़ने को मिलती है . जहां अनंत है वही से प्रारंभ और इन्ही के बीच उछलकूद करती परिकल्पना का अनंत संसार. कविता की ये सृष्टि स्वयं में प्रश्नानुकूल भी है और मनन करने योग्य भी.. साधुवाद सम्मानिया अशोक जी. नमन !
(कविता ह्रदय से इतनी अच्छी लगी कि मैंने अपने फेसबुक वाल पर भी शेयर किया है..)

Anonymous said...

bandhuvar.. kavita padhee.. bahut prabhavpurna aur chetna sampanna.. badhaai..
vajpeyi

ashok gupta said...

प्रिय भाई अशोक आंद्रे,
बहुत संवेद्य और संवाहक कविता है दोस्त, बधाई. इसकी दो महत्वपूर्ण स्थापनाएं रचना की उपलब्धि कही जा सकती हैं, पहले तो वह बात, कि किसी भी उम्र में मनुष्य के भीतर उछल कूद मचाता बचपन ही जंगल तो उद्वेलित कर सकता है, और जंगल के उद्वेलन से ही जड़ मूल्यों की गिरफ्त से समाज छूटता है. दूसरी बात, कि, संघर्ष को निरंतर नए स्वरूप में ढल कर अपने समय का सामना करने को तैयार रहना होता है, अन्यथा वह प्रभावी नहीं रह जाता. कोई भी आदर्श संघर्ष, विगत के आदर्श संघर्ष की फोटो कॉपी बन कर सफल नहीं हो सकता. इन बात को कविता में कह पाना सरल नहीं होता. तुम कह पाए हो... साधुवाद.
अशोक गुप्ता

Anonymous said...

...कविता के कैलिडिस्कोप में बनती सतरंगी सुन्दर आकृतियाँ सुहाती हैं जैसे -
...... उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात........

....और अंत मैं .... बाबा की परिकल्पनाओं को अनंत विस्तार और दिशा देती पंक्तियाँ ...रोशनी की शहतीर सी -......... अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --
कविता मन-मस्तिस्क को ठंडी बयार के झोंके सी सहलाती हुई चलती है.
बधाई
-Inder

PRAN SHARMA said...

CHUNKI KI KAVITA KEE BHAVABHIVYAKTI
SASHAKT HAI ISLIYE MAN KO BHARPOOR
CHHOOTEE HAI .

रूपसिंह चन्देल said...

Yaar, Bahut hi dhansu kavita likh di. Gambhir aur lajavab.

Badhai,

Ek Sadharan dost

Chandel

सदा said...

तभी तो तपस्वी मौन व्रत लिए
उसके आगोश में निरंतर चिंतन मुद्रा में लीन रहते हैं
बेहद गहन भावों को समेटे यह अभिव्‍यक्ति जिसके आगे में नि:शब्‍द हूं ... आपका विस्‍तृत परिचय रश्‍मी जी के ब्‍लॉग पर जाना और सौभाग्‍य मेरा आपको पढ़ने का अवसर मिला ...आभार के साथ शुभकामनाएं ।

ashok andrey said...

is kavita par aap sabhi guni jano ki itni achchhi tippniyan milne par mai sabhi ka aabhar vayakt tarta hoon aur bhavishya me bhee isi tarah aap sabhee se aatmiya tatha snehil pyaar miltaa rhega inheen shabdon ke saath ek baar phir mai aap sabhee ko naman kartaa hoon

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sir!! main to bas yahi kah sakta hoon ki "wah"!!! bahut shandaar rachna...!!

Anonymous said...

बहुत सुन्दर रचना. "उनके संघर्ष समय के कंधे पर बैठ, निहारते थे कुछ अज्ञात"... अद्भुत

कविता रावत said...

यह भी सच है कि जंगली कथाओं की परिकल्पनाओं से बेखबर
मंचित हो सकने वाले उनके जीवन के अध्याय
अपनी खामोशी तोड़ते रहते,
ताकि उनका बचपन-
उनके अन्दर उछल कूद करता
जंगल को उद्वेलित कर सके
ताकि वे अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --सिवाय अंत के .
..bahut hi badiya rachna..
Aapke blog par aakar bahut khushi huyee..
Haardik shubhkamnayen!

सुभाष नीरव said...

भाई अशोक जी
एक बेहतरीन कविता पढ़ने को मिली। यह कविता ठहर ठहर कर पढ़ने वाली कविता है। भीतर कुछ हलचल मचाती है…कविता की सार्थकत भी यही है कि वह अपने पाठक को बांधे मगर उसके भीतर कुछ छोड़कर भी जाए… यह 'कुछ'हर पाठक के लिए अलग अलग हो सकता है। बधाई सुन्दर कविता के लिए…

Dev said...

atisundar vistaar ....sundar rachna ke liye bandhai