Saturday, July 7, 2012

अशोक आंद्रे


             उम्मीद
 
जिस भूखंड से अभी
 
रथ निकला था सरपट
 
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
 
नंगा कर  रहे थे उन पेड़ों को
 
हवा के बगुले
 
मई के महीने में.
 
पोखर में वहीं,
 
मछली का शिशु
 
टटोलने लगता है माँ के शरीर को.
 
माँ देखती है आकाश
 
और समय दुबक जाता है झाड़ियों के पीछे
 
तभी चील के डैनों तले छिपा
 
शाम का धुंधलका

उसकी आँखों में छोड़ जाता है कुछ अन्धेरा .
 
पीछे   खड़ा बगुला चोंच में दबोचे
 
उसके शिशु की
 
देह और आत्मा के बीच के
 
शून्य को निगल जाता है
 
और माँ फिर से
 
टटोलने लगती अपने पेट को.
             #####

        नदी 
 
 
नदी के उद्गम स्थल पर शोर नहीं होता है.
क्योंकि सारा शोर तो 
नन्हीं घास के बीच छिपा रह कर 
सृजन की पहली सीढ़ी को छूने की 
कोशिश कर रहा होता है,
नहीं तो जंगल में सृजन कैसे कर पाएगी नदी ?
 
हरियाली लिए किनारे 
जो नदी को अपनी ओर
आकर्षित करते हैं लगातार 
उसी आकर्षण की पूर्णता में ही तो,
पूरा वातायन संगीतमय हो उठता है.
                #####

11 comments:

तिलक राज कपूर said...

बहत खूबसूरत कवितायें भाव-पक्ष को पूर्णता से जीतीं हुई।

PRAN SHARMA said...

` UMMEED ` AUR ` NADEE ` DONO
KAVITAAYEN MAIN BADE MANOYOG SE
PADH GAAYAA HUN . AANAND AA GAYAA
HAI .

रूपसिंह चन्देल said...

बहुत सुन्दर भावों को प्रकट करती कविताएं. नदी ने मन मोह लिया. बधाई.

चन्देल

Anju (Anu) Chaudhary said...

अशोक जी ...दोनों ही कविता अपने आप में पूर्ण हैं ...बहुत खूब

vijay kumar sappatti said...

बहुत सुन्दर अशोक जी .. दोनों कविताओ में उपमाये बहुत अच्छी तरह से उपयोग की गयी है .. और यही बिम्ब कविताओ को सुंदरता देती है . पहली कविता बहुत गहरी है ...छु गयी है .कहीं.

inder deo gupta said...

आपने एक आहत आत्मा की पीर को डोरे में पिरोये ...चुनौतियाँ देते एक विजेता शिशु में " उम्मीद " जगाई है ....शब्द दर शब्द रहस्य बुनती और परत दर परत उद्घाटित करती हुई यह एक उत्कृष्ट और भाव मय कृति है.

कविता रावत said...

दोनों कवितायेँ बहुत ही सारगर्भित लगी..
बहुत बढ़िया ब्लॉग ..
सुन्दर प्रस्तुति ..

दिगम्बर नासवा said...

कविता के माध्यम से अपने भावों कों जीती हैं शब्द ... बहुत ही प्रभावी रचनाएं ...

सुधाकल्प said...

अशोक जी

सादर

पीछे खड़ा बगुला छोंच में दबोचे

उसके शिशु की

देह और आत्मा के बीच के

शून्य को निगल जाता है

और माँ फिर से

टटोलने लगती है अपने पेट को |

किसी रहस्य को उजागर करती इन पंक्तियों को पढ़कर लगा जैसे रेत में अंकुरित एक सपना उग आया हो |

नदी कविता प्रकृति के अति निकट होते हुए भी उसमें भावनाओं की अभिव्यक्ति सुन्दर ढंग से की है |सच कहा -आकर्षण की पूर्णता में ही तो /पूरा वातावरण संगीतमय हो उठता है |

इतनी अच्छी कवितायेँ पढ़ने को मिली ,शुक्रिया |

Narendra Vyas said...

भावों के साथ-साथ कथ्य और उपमेय बेहद अप्रतिम हैं. दृश्यात्मकता चमत्कृत कर रही है. दोनों ही कविताएँ उच्च स्तरीय और परिपूर्ण हैं. आभार !

डॉ. जेन्नी शबनम said...

उम्मीद और नदी दोनों कविता अद्भुत लगी. सब कुछ खोने के बाद भी उम्मीद का जीवित रहना जीने के लिए बेहद ज़रूरी है. बहुत गहरी भावपूर्ण रचनाएँ. बधाई और शुभकामनाएँ.