Sunday, July 7, 2013

अशोक आंद्रे

नंगे पाँव


नंगे पाँव चलते हुए निःशब्द
एक शहर पहुंचा है कस्बे के पास
जिसके साथ सब कुछ चला आया है
जिसे झुठलाना असंभव हो गया है
एक शोर है उसकी नसों में
धुंआ है अप-संस्कृति का फैलाते हुए
हुजूम है तिलिस्म आवाजों का
जिसे पोस्टर बना चस्पां करने की व्यग्रता है
उसकी हर साँसों में
क्योंकि वह नंगे पाँव खामोश चलता है।
रेंगती कतारें, उसके क़दमों के नीचे आने से पहले
हाफने लगती हैं
किन्तु-परन्तु उसकी भाषा में कोई जगह नहीं रखती है
उसके जिस्म से निकलती हर तिलिस्म आवाजें
हर जीव के अंतर्द्वंदों में दहशत के साथ
कुछ आकर्षण भी पैदा करती हैं
रेंगती चींटियो की तरह कसबे
अपने पीछे फैले जंगल को देखने लगते हैं
शहर है कि नंगे पाँव
क़स्बे की अस्मिता को उसकी ही
संस्कृति में ओंधे मूहं गिराकर
घेरने की तमाम कोशिश करता है
शहर फैल जाता है उसके चारों ओर
विजय परचम लहराते हुए
क्योंकि मीडिया उसके हथियार होते है
तभी तो कस्बे को हथियार डालने के बाद
शहर को गले लगाना पड़ता है
तब, शहर एक बार फिर किसी
नये कस्बे की खोज में
निकल पड़ता है
तब एक सवाल उभरता है उसके समक्ष
शहर का यह रूप किस मोड़ पर आकर रुकेगा
आखिर कस्बे के साथ
गाँव और जंगल को भी तो
विश्व के मानचित्र पर
अपने अस्तित्व को कायम रखने का
अधिकार तो होना ही चाहिए न,
क्योंकि शहर है कि बढता ही जा रहा है।
                                   *******

11 comments:

तिलक राज कपूर said...

इस कविता पर मेरी टिप्‍पणी एक शेर में:
गॉंव गुम शह्र की ज़मीनों में
आदमी खो गये मशीनों में।

PRAN SHARMA said...

SACHCHAAEE KO UKERTEE HUEE AAPKEE YAH UMDA KAVITAA HAI .

बलराम अग्रवाल said...

शहर है कि बढ़ता जा रहा है--अस्तित्व बचाने के भय से ग्रस्त गाँव, कस्बा और जंगल की पीड़ा को व्यक्त करती विचारोत्तेजक कविता।

Anju (Anu) Chaudhary said...

क्योंकि शहर है कि बढता ही जा रहा है।

तभी तो विपदा का कहर बढता जा रहा है

Udan Tashtari said...

vaah!! bahut umda!!

Anonymous said...

धन्यवाद। अच्छी कविताहै।आपकी मुक्ति आदि कुछ और कविताएं भी पढ गया हूं। अच्छा अनुभव कर रहा हूं। बधाई।
दिविक रमेश

inder deo gupta said...

गाँव-कस्बे जंगल की अस्मिता को लीलती सीमेंट की सुनामी से चिंतित एक सुधिमना कवि की अन्तर्वेदना ....दीर्घनिन्द्रा से ग्रस्त आदमी को जगाती हुई एक सशक्त रचना !

Anonymous said...

गाँव-कस्बे जंगल की अस्मिता को लीलती सीमेंट की सुनामी से चिंतित एक
सुधिमना कवि की अन्तर्वेदना ....दीर्घनिन्द्रा से ग्रस्त आदमी को जगाती
हुई एक सशक्त रचना !

इंद्र सविता

डॉ. जेन्नी शबनम said...

शहरीकरण की प्रक्रिया न सिर्फ कस्बों को बल्कि गाँवों तक को लील रही है. अस्तित्व बचा है तो बस इतना कि कुछ खेत खलिहान शेष है जो आधुनिक तकनीक द्वारा खेती से वंचित है गाँव कस्बों का हिस्सा है; क्योंकि शहर को खेत खलिहान पसंद नहीं. विश्व मानचित्र से ये कस्बे कब मिट जाएँ मालूम नहीं. सामयिक गहन चिंतन... बहुत शुभकामनाएँ.

सुधाकल्प said...

इस कविता को पढ़कर गांधी जी अनायास याद आ गए। वे कहा करते थे -हमारा भारत गांवों में बसता है ।कवि इस तथ्य की ओर संकेत करता हुआ अपने मन की पीड़ा बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त करता है। सच मेँ आज दावानल की आग की तरह शहर गांवों -जंगलों की ओर बढ़ता ही आ रहा है ---उसकी सभ्यता के आगोश में गाँव डूब रहे हैं ,नई पीढ़ी गुम हो रही है और डूब रही है वर्षों पुरानी हमारी संस्कृति और प्राकृतिक धरोहर ।
कविता पढ़कर यह अनुभूति प्रबल हो उठती है कि इनके स्वरूप को बचाना निहायत जरूरी है ।

Anonymous said...

Priya Ashok ji,

Kavitayen padhin . Man dravit ho gaya. Pahli kavita teele wali bahut hi acchi lagi
shail agrawal