Friday, February 12, 2016

अशोक आंद्रे

        
सिसकती लय पर
 
पौरुश्ता का दंभ
आदमी का अट्टहास
दिन के उजाले में
अनाम सिसकती लय पर
करता है तैयार अदृश्य बाड़ा
यह संभावनाओं का संक्रांति काल है
जो, नारी को पूर्वाग्रही आख्यानों में लपेट
उसे नवजागरण के गीत सुनाता है
क्योंकि सिसकियों की कीमत
कंगन के बराबर है उसके लिए,
उसकी हर चीख को दयनीयता में बदल
छिपा देता है परदे के पीछे,
ताकि स्वयं को काम-देवता
घोषित किया जा सके.
जबकि उन्नत उरोजों के
उछल पर
सिसकते हुए लब
ढूंढते रहे अज्ञात किनारे
ताकि जिन्दगी बची रहे,
जबकि विकल्प के बिना
सिसकियाँ आज भी बरकरार हैं.
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11 comments:

vandana gupta said...

सार्थक प्रस्तुति

PRAN SHARMA said...

बहुत बढ़िया काव्याभिव्यक्ति। आपकी लेखनी का मैं मुरीद हूँ .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13-02-2016) को "माँ सरस्वती-नैसर्गिक शृंगार" (चर्चा अंक-2251) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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बसन्त पंञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

inder deo gupta said...

प्रिय अशोक जी,
पुरुष की वर्चस्व की प्रकृति और नारी की बेबसी को मार्मिक तरीके से काव्यात्मक स्वर दिए हैं आपने।
- इन्द्र सविता

Anonymous said...

आदरणीय अशोक जी,​
मैंने अभी आपकी कविता ' सिसकती लय पर ' पढ़ी।
नारी के जीवन की वास्तविकता को, उसकी हृदय व्यथा को, प्रतीकात्मक सन्दर्भ में ,
सिसकियों के रूप में बहुत ही मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है आपने अपनी इस कविता में।
हार्दिक बधाई एवं सराहना स्वीकार करें।
सादर,
कुसुम

Jyoti khare said...

स्त्री की मनःस्थिति की भावपूर्ण और मार्मिक रचना
कमाल के प्रतीक
साधुवाद अग्रज
सादर

Anonymous said...

बधाई। एक सशक्त अभिव्यक्ति।
अनिलप्रभा

Anonymous said...

v.nice
बीनू भटनागर

तिलक राज कपूर said...

नारी के संघर्ष एवं पुरुष के सार्वभौमिक थोथे दंभ का खूबसूरत चित्रण।

सुधाकल्प said...

नारी संदर्भ में लिखी इस कविता में कवि की अभिव्यक्ति काव्यमय होते हुए भी सत्यासत्य के विराट आकाश का आभास कराती है और लगता है यह कविता नहीं बल्कि हा-हाकार करते मूक स्वरों को जबान मिल गई है। इसके अलावा पुरुष की सर्वशक्तिमान बने रहने की प्रकृति को ललकार कर कवि के संवेदन हृदय ने उसके अमानवीय व्यवहार के विरोध में बड़ी निर्भीकता से आवाज उठाई है।
आज यथार्थ के धरातल पर टिकी इस तरह की कविताओं की नितांत आवश्यकता है। मेरे अंतरंग को तो कविता की एक एक पंक्ति ने झंझोड़ कर रख दिया है।
काव्य सौंदर्य को समेटे इतनी सुंदर कविता के सृजन के लिए अशोक जी को बहुत बहुत बधाई।

Anonymous said...

नारी की दयनीय दशा का सजीव चित्रण और वेदना की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है | प्रतिक्रिया में विलम्ब के लिए खेद है | नेट की अनुपलभ्ता मुख्य कारण है |
प.एन.टंडन