Monday, August 14, 2017

अशोक आंद्रे

इसी क्रम में

उनका मानना है कि वे
धरती को संवार रहे हैं
इसी क्रम में उन्होंने
सबसे पहले जंगलों को उजाड़ना शुरू किया
फिर लहलहाती नदियों को बांधना शुरू लिया
बंधनवार तो सज गये
लेकिन नदियाँ कहाँ चली गईं?
उसका पता
किसी के पास नहीं है
गिद्ध दृष्टि तो उनकी चारों ओर
अपनी पकड़ बना रही थी
उन्हें तो धरती को सजाना था
चारों तरफ निगाह डाली
जा सकती थी जहां तक
जीव-जंतु तो भाग गये 
उनके पीछे डर को तैनात कर दिया
इससे भी उनका मन शांत नहीं हो रहा था
तभी पहाड़ों की तरफ देखा
फिर जड़ों की ओर देखा
पहाड़ सहम गये
सिर झुकाने को तैयार हो गये अचानक
जमीं धसे पत्थर उसको आहत कर रहे थे.

आखिर धरती को संवारने का मुद्दा महत्वपूर्ण था
वे भूल गये कि अगर
शरीर में से हड्डी को निकाल दोगे तो
शरीर का क्या होगा ?
ये पत्थर ही तो हैं उन हड्डियों की तरह हैं जो
धरती को संभाल रहे हैं सदियों से
मनुष्य तो स्वार्थी है न
दौड़ पड़ा आकाश कि ओर
धरती तो धरती
क्या होगा अब आकाश का ?
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Wednesday, July 5, 2017

अशोक आंद्रे


             शब्द

 

खोज करते शब्द

फिसल जाते हैं अक्सर चादर ओढ़

तैरने की नाटकीय कोशिश करते

समय की लहरों पर

लहराते परों की लय पर

संघर्षों का इतिहास बाँचने लगते हैं तब

फिर कैसे डूबने लगते हैं शब्द ?

साहिल की दहलीज पर,

उड़ेलते हुये भावों को

पास आती लहरों को

छूने की खातिर-

जब खोजने लगता है अंतर्मन

तह लगी वीरानियों में

क्षत-विक्षत शवों की

पहचान करते हुये.

मौन के आवर्त तभी

खडखडाने लगते हैं जहाँ

साँसों के कोलाहल को

धकेलते हुये पाशर्व में

खोजता है तभी नये धरातल

चादर खींच शब्दों की

करता है जागृत

शायद शब्दों को अनंत स्वरूप देने के लिए.

ताकि भूत होने से पहले

वर्तमान को भविष्य की ओर जाते हुये

नई दिशा मिल सके

शब्दों को !

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Thursday, August 25, 2016

अशोक आंद्रे

वह मौन ---!

आसुओं का सैलाब
निकल पड़ता है
कहीं भी यात्रा पर,
भावनाओं का समंदर
अंतरतम में
छिपा रह कर करता है वास,
सृष्टि कर्ता ने
नर की खोखली व्यवस्था में
'' और '' को जोड़
माँ की
सुन्दरतम कल्पना के संग
नये धरातलों का
कर दिया है निर्माण.

सृष्टि ने इसी '', '' के साथ
हलचलों का विस्तार कर
जन्मा दिया खूबसूरत भविष्य को
कालांतर में
अपनी मौन स्वीकृति देकर
सृष्टि के हर अध्याय को देने लगी विस्तार

सीधी-सच्ची आ'' और ''
आज भी
नारी स्वरूपा बनी माँ
स्वयं की यात्रा को करती है
व्यवस्थित,
सृष्टि की सुन्दरतम रहस्य को
छिपाये हुए अपने भीतर.
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Friday, February 12, 2016

अशोक आंद्रे

        
सिसकती लय पर
 
पौरुश्ता का दंभ
आदमी का अट्टहास
दिन के उजाले में
अनाम सिसकती लय पर
करता है तैयार अदृश्य बाड़ा
यह संभावनाओं का संक्रांति काल है
जो, नारी को पूर्वाग्रही आख्यानों में लपेट
उसे नवजागरण के गीत सुनाता है
क्योंकि सिसकियों की कीमत
कंगन के बराबर है उसके लिए,
उसकी हर चीख को दयनीयता में बदल
छिपा देता है परदे के पीछे,
ताकि स्वयं को काम-देवता
घोषित किया जा सके.
जबकि उन्नत उरोजों के
उछल पर
सिसकते हुए लब
ढूंढते रहे अज्ञात किनारे
ताकि जिन्दगी बची रहे,
जबकि विकल्प के बिना
सिसकियाँ आज भी बरकरार हैं.
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Thursday, September 10, 2015

अशोक आंद्रे

वह मेरे सपनें में

रोज मेरे सपनों में आती है वह,
किसी उदासीन दृश्य की तरह
खनखनाती हुई अपने सुहाग चिन्हों को.
दर--दीवार को छूने की बजाय
टेबल पर पड़े मेरे पेन को छूकर
मुस्कुराने लगती है वह.
उसकी लटें
बाहर से आती हवा में
लहरा कर
किसी अनंत और उद्दाम कथा को
रूपायित करते हुये
मेरे चेहरे को
ढांपने की कोशिश करती है.
उसकी आँखें
बहुत कुछ बयाँ करने के लिये
अपनी स्मित हंसी को
कब्र में से निकालती हुई
प्रतीत होती हैं.
मेरा समग्र उसको सुनने के लिए
ठिठका रह जाता हैं,
मेरे सपनों की फंतासी को
उद्ग्विन करने की कोशिश में
वह
अपने उन्नत अंगों से
थाप देती है मुझे शनै:-शनै:
तभी आकाश के स्याह बादलों की अमर्यादित बूँदें
भिगो जाती हैं उसके चेहरे को,
उसको पाने की भरपूर कोशिश करता हूँ
मेरे अन्दर के जागृत शैतान की मौजूदगी में:,
यकायक उसके हाथ मेरे गालों को छूकर
कुछ सन्देश देते हैं मनो
और मैं स्वप्न नरक से उबर कर
जीवन के आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगता हूँ.
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Wednesday, May 20, 2015

अशोक आंद्रे

एक सलीब और 

पराभूत होती जिंदगियां
विषाद को पीठ पर लादे
सिर कटी देह
व्यस्त चौराहों पर
समय के सलीब पर लटकी हैं.

शब्द हीन प्रणय की प्रार्थना करती
खामोश हो
अनंत गहराइयों में
रोपती हैं बीज,
आदमी है कि
अहं के दरवाजे उघाड़
विजय घोष की तस्वीर उकेरते ही
घबराहट की धार पर
शमशानी परिवेश के
रचने लगता है पन्ने,

सुनो, जंगल दहाड़ रहा है
पेड़ों को अपंग  कर
बिलखते पत्तों की रुदन
पृथ्वी को थरथराते हुए.
हाँ,बहती नदी को भी
अब घूरने लग गये हैं नियोजक-नियंता
क्योंकि उन्हें पता है कि
अब नहीं लौटेंगी
पराभूत होती जिंदगियां.
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Friday, January 16, 2015

अशोक आंद्रे


दरिन्दे
दरिन्दे
करीब की दुनिया में
अँगुलियों की नोक पर टिकाये,

सधे हुये शब्दों की
तासीर में
छुआ देते हैं मरघट की आग.

भीड़ बेचारों की  
छिपाये आक्रोश को जेब में  
फुसफसाती रहती है वक्तव्य और दुहाई.
सभ्य होने का नाटक रचती  
खोजने लगती है भीड़  
वीरान रास्ता.

ताकि सृष्टिकर्ता के विधान को
कोसा जा सके यथासंभव.
प्रवक्ता मानवता के स्वयं से दूर छिटके-छिटके   
आईने में समाधान के
स्वयं का प्रगतिशील चेहरा देख हो लेते हैं संतुष्ट.  

और साम्राज्य दरिंदों का
बढता ही जाता है लगातार.
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Tuesday, July 29, 2014

अशोक आंद्रे


आहट दो क़दमों की

रोज शाम के वक्त सुनता है वह  
जब उन दो क़दमों की आहट को ,
तब साँसें थम जाती हैं
उन हवाओं की थपथपाहट के साथ
जहाँ ढूँढती हैं कुछ, उसकी निगाहें
घर के आँगन के हर कोनों में,
वहीं पेड़ भी महसूस करते हैं
पत्तों की सरसराहट में उन आहटों को,
उन्हीं दृश्यों के बीच अवाक खड़ा
नैनों की तरलता को थामें
निहारता रहता है आकाश में
अपनी स्व: की आस्थाओं को भीजते हुये  
किसी मृग की तरह,
लेकिन जिस्म तो
किसी अनाम रोशनियों के बीच
नन्हें शावक की तरह गायब हो गया है
वहां अँधेरा इबारत तो लिखता है
जिसे पढने में असमर्थ वह  
उन क़दमों की आहट में छिपे
शब्दों को अपने कानों के करीब
फुसफुसाते हुये महसूस करता है,
तब पास ही बिछी
नन्हीं कोंपलों की चादर को 
अपने पांवों के नीचे फैली
कोमलता भरे स्पर्श को अनुभूत करता है, 
जहां वह हमेशा उसके करीब रहता है  
क्योंकि उसके-अपने मध्य  
ईश्वरीय अक्स उसको  
अपने करीब की थिरकती साँसों से
आत्मीय सुकून से भर देता है

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Sunday, June 1, 2014

अशोक आंद्रे

सपनें

 कितने सपने लेता है आदमी
सारे रिश्ते
सपनों के करीब
झिलमिलाते हैं उसके
कहते हैं कि सपने
आसमान से आते हैं
लेकिन आदमी चला जाता है इक दिन
और सपने नीचे रह जाते हैं
आखिर सपने साथ क्यों नहीं जाते ?
उन सपनों का क्या करे जो
पीछे रह जाते हैं,
क्योंकि वे तो
सर्वनाम बन कर जीने लगते हैं.
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यादें
मेरे चारों ओर
यादों को समेटे
सूखे पत्तों का अंबार लगा हुआ है
और मैं अपनी बेवकूफी से
उन पत्तों पर पैर रख कर
अपनी यादों की चिंदी-चिंदी कर बैठता हूँ
शायद यही नियति होती है
उस सत्य की
जिसे सदियों से हम
पालते पोसते रहे हैं.
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भूखे पेट
ये कैसा दृश्य है
दीया तो मंदिर में जलता है
लेकिन अँधेरा
घर में फैलता है
आदमी है कि
गीत प्रभु के गाता है
दूर कहीं भूखे पेट
बिलखता है बच्चा .
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Sunday, April 13, 2014

अशोक आंद्रे

 
यादों के मकान
जब से यादों के मकान बनाये हैं
उसमें सब कुछ होने के बावजूद
हर वक्त
रोशनदान की कमी महसूस होती है
तभी से एक बैचेनी का सैलाब
पूरे समय
घेरे रहती है उसको
और जिन्दगी की सुभह को
शाम में तब्दील कर देती है
वहां सूरज तो है
मात्र लाली लिए हुये
सब कुछ राख कर देना चाहती है
जो बदनुमा दाग की तरह
उसकी सिहरन भरी जिन्दगी में
सब कुछ बयाँ कर जाता है
जिसे सूरज की रोश्नी में
हमेशा के लिए भूलने की
कोशिश करता है
जबकि रोशनदान तो फिर भी दिखाई नहीं देता है.
उधर घर के पास बैठा
बूढ़ा भी तो
सुभह उठते ही
रात की कालिमा से
लदे दाग को झाड़ने लगता है
वह जानता है कि दाग तो हट नहीं पाते
किन्तु उसके हाथ
जरूर लाल होकर
ताजगी का अहसास करा देते हैं
उसे देख वह भी
रोशनदान के न होने के
दुःख को भूल जाता है
फिर अपनी यादों के मकान में
रोशनदान की कल्पना को स्थापित कर
सुभह की ताजगी को महसूस करने लगता है
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Friday, March 14, 2014

अशोक आंद्रे

रहस्मयी परछाइयाँ

 
अँधेरे में टिमटिमाती रोशनियों में
देखता है एक बच्चे को   
जो शब्दों की रहस्मयी परछाइयों को
खंगालते हुए
साधनाओं के घेरे बनाता हुआ दिखाई देता है.
उन घेरों में-
फंसे यथार्थ को सच्चाई की
चादर पर बिछा कर वह     
उस छोटे बच्चे की आहट को
दिये का सहारा देकर
पास बुलाता है
पता नहीं वह खोया-खोया सा
क्षितिज में क्या ढूंढ रहा है
उसके सधे हुए सारे शब्द
सन्नाटा तोड़ते
उसकी उलझनों को,
बुनी हुई रस्सी की तरह
लपेटते हुये
अपने पास आने का संकेत
उछाल कर
उसकी दुविधा को
किसी अन्य ग्रह में दफन कर देता है
ताकि वह अपने छोटे-छोटे पांवों से
चलते हुए
धरती के हर कण में
जीवन रोप कर
आनंद की फुहार कर सके
ताकि वह शब्दों की रहस्मयी
परछाइयों की बदली छांट सके  
ताकि सन्यासी की थिरकन भरे आनंद को
जीवन में उतार कर
अपने समय को नई दिशा दे सके.
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Saturday, February 1, 2014

अशोक आंद्रे



अजनबी छुअन

जब भी अपनी महान खामोशियों में उसे ढूंढता
तेज आँधियों में उसका अस्तित्व
सूखे पत्तों की तरह
रेतीले सागर में कैसे खो जाते थे ?
उसकी सारी यात्राएं भी
प्रस्थान बिंदु की ओर क्यों लौटने लगतीं थीं?
समय की सरसराहट जरूर
जिन्दा होने का आभास देती थीं   
आखिर एक जिस्म ही तो था उसके पास  
 जो उन आँखों तक पहुंचाता था  
जिसे छूकर वह  
एक अजनबी छुअन की ताकत को महसूस करता था .
तब झील में गिरते पत्तों की खुशबू भी
किनारों को छूती हुई
जब भी लौटती
उसके अन्दर का जंगल
महकता हुआ
किसी तूफान की तरह  
चारों ओर से घेर लेता. 
जहां स्मृतियों के अथाह कोलाहल में
कितनी अनुभूतियाँ अनजाने ही
उसे छूने लगतीं.  
लगता जीवन कभी एकाकी नहीं हो सकता
क्योंकि विश्व की हर छुअन जो उसके साथ थी 
जहां कई रंगों में महकता जीवन
उनके बीच अद्भुत संरचना करता दिखाई देता है
लगता वहीं उसका भी कोई रंग अठखेलियाँ करता है  
जिसे अक्सर ढूंढता है मन की गहराइयों में   
फिर वे सूखे पत्तों की तरह
कैसे रेतीले सागर में खो सकते हैं ?
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