Friday, March 14, 2014

अशोक आंद्रे

रहस्मयी परछाइयाँ

 
अँधेरे में टिमटिमाती रोशनियों में
देखता है एक बच्चे को   
जो शब्दों की रहस्मयी परछाइयों को
खंगालते हुए
साधनाओं के घेरे बनाता हुआ दिखाई देता है.
उन घेरों में-
फंसे यथार्थ को सच्चाई की
चादर पर बिछा कर वह     
उस छोटे बच्चे की आहट को
दिये का सहारा देकर
पास बुलाता है
पता नहीं वह खोया-खोया सा
क्षितिज में क्या ढूंढ रहा है
उसके सधे हुए सारे शब्द
सन्नाटा तोड़ते
उसकी उलझनों को,
बुनी हुई रस्सी की तरह
लपेटते हुये
अपने पास आने का संकेत
उछाल कर
उसकी दुविधा को
किसी अन्य ग्रह में दफन कर देता है
ताकि वह अपने छोटे-छोटे पांवों से
चलते हुए
धरती के हर कण में
जीवन रोप कर
आनंद की फुहार कर सके
ताकि वह शब्दों की रहस्मयी
परछाइयों की बदली छांट सके  
ताकि सन्यासी की थिरकन भरे आनंद को
जीवन में उतार कर
अपने समय को नई दिशा दे सके.
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