Wednesday, July 5, 2017

अशोक आंद्रे


             शब्द

 

खोज करते शब्द

फिसल जाते हैं अक्सर चादर ओढ़

तैरने की नाटकीय कोशिश करते

समय की लहरों पर

लहराते परों की लय पर

संघर्षों का इतिहास बाँचने लगते हैं तब

फिर कैसे डूबने लगते हैं शब्द ?

साहिल की दहलीज पर,

उड़ेलते हुये भावों को

पास आती लहरों को

छूने की खातिर-

जब खोजने लगता है अंतर्मन

तह लगी वीरानियों में

क्षत-विक्षत शवों की

पहचान करते हुये.

मौन के आवर्त तभी

खडखडाने लगते हैं जहाँ

साँसों के कोलाहल को

धकेलते हुये पाशर्व में

खोजता है तभी नये धरातल

चादर खींच शब्दों की

करता है जागृत

शायद शब्दों को अनंत स्वरूप देने के लिए.

ताकि भूत होने से पहले

वर्तमान को भविष्य की ओर जाते हुये

नई दिशा मिल सके

शब्दों को !

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