Saturday, February 1, 2014

अशोक आंद्रे



अजनबी छुअन

जब भी अपनी महान खामोशियों में उसे ढूंढता
तेज आँधियों में उसका अस्तित्व
सूखे पत्तों की तरह
रेतीले सागर में कैसे खो जाते थे ?
उसकी सारी यात्राएं भी
प्रस्थान बिंदु की ओर क्यों लौटने लगतीं थीं?
समय की सरसराहट जरूर
जिन्दा होने का आभास देती थीं   
आखिर एक जिस्म ही तो था उसके पास  
 जो उन आँखों तक पहुंचाता था  
जिसे छूकर वह  
एक अजनबी छुअन की ताकत को महसूस करता था .
तब झील में गिरते पत्तों की खुशबू भी
किनारों को छूती हुई
जब भी लौटती
उसके अन्दर का जंगल
महकता हुआ
किसी तूफान की तरह  
चारों ओर से घेर लेता. 
जहां स्मृतियों के अथाह कोलाहल में
कितनी अनुभूतियाँ अनजाने ही
उसे छूने लगतीं.  
लगता जीवन कभी एकाकी नहीं हो सकता
क्योंकि विश्व की हर छुअन जो उसके साथ थी 
जहां कई रंगों में महकता जीवन
उनके बीच अद्भुत संरचना करता दिखाई देता है
लगता वहीं उसका भी कोई रंग अठखेलियाँ करता है  
जिसे अक्सर ढूंढता है मन की गहराइयों में   
फिर वे सूखे पत्तों की तरह
कैसे रेतीले सागर में खो सकते हैं ?
        ******