Thursday, July 25, 2013

अशोक आंद्रे

बादलों की
 
बादलों की गडगडाहट पर
 गाती हैं बुँदे
 सागर की उछाल  पर
 नाचती हैं लहरें
 वृक्षों की धडकनों पर
 लहराते पत्ते
 बजाने लगते हैं मृदंग
 धरती की छाती से निकली
 छुअन पर
 नाच उठता है जीवन
 और जमीं की छाती से
 सिर उठाने लगती है
 नन्ही कोंपलें
 फिर क्यूँ
 इतने गहन संगीत से भरी कायनात के
 ह्रदय में,
 द्रवित रहते हैं हमारे अहसास
 और क्यूँ नाचने को आतुर
 हमारे कदम
 डूबने लगते हैं
 शर्मीले भावों के नद में
 कुछ खोजते हुए.
 जबकि नाचते-नाचते मैं
 थक जाता हूँ
 पर वे  नहीं थकते कभी
 ऐसा क्यूँ ?
 ऐसे सवाल मेरे मन में  
 अक्सर गूंजते हैं
 फिर एक कोशिश----
 तभी एक पत्ता
 थाम लेता है मेरा हाथ
 अनजानी ध्वनियों की गूँज में
 तब झूम जाता है मेरा मन.
 
         ******* 

Sunday, July 7, 2013

अशोक आंद्रे

नंगे पाँव


नंगे पाँव चलते हुए निःशब्द
एक शहर पहुंचा है कस्बे के पास
जिसके साथ सब कुछ चला आया है
जिसे झुठलाना असंभव हो गया है
एक शोर है उसकी नसों में
धुंआ है अप-संस्कृति का फैलाते हुए
हुजूम है तिलिस्म आवाजों का
जिसे पोस्टर बना चस्पां करने की व्यग्रता है
उसकी हर साँसों में
क्योंकि वह नंगे पाँव खामोश चलता है।
रेंगती कतारें, उसके क़दमों के नीचे आने से पहले
हाफने लगती हैं
किन्तु-परन्तु उसकी भाषा में कोई जगह नहीं रखती है
उसके जिस्म से निकलती हर तिलिस्म आवाजें
हर जीव के अंतर्द्वंदों में दहशत के साथ
कुछ आकर्षण भी पैदा करती हैं
रेंगती चींटियो की तरह कसबे
अपने पीछे फैले जंगल को देखने लगते हैं
शहर है कि नंगे पाँव
क़स्बे की अस्मिता को उसकी ही
संस्कृति में ओंधे मूहं गिराकर
घेरने की तमाम कोशिश करता है
शहर फैल जाता है उसके चारों ओर
विजय परचम लहराते हुए
क्योंकि मीडिया उसके हथियार होते है
तभी तो कस्बे को हथियार डालने के बाद
शहर को गले लगाना पड़ता है
तब, शहर एक बार फिर किसी
नये कस्बे की खोज में
निकल पड़ता है
तब एक सवाल उभरता है उसके समक्ष
शहर का यह रूप किस मोड़ पर आकर रुकेगा
आखिर कस्बे के साथ
गाँव और जंगल को भी तो
विश्व के मानचित्र पर
अपने अस्तित्व को कायम रखने का
अधिकार तो होना ही चाहिए न,
क्योंकि शहर है कि बढता ही जा रहा है।
                                   *******

Tuesday, July 2, 2013

अशोक आंद्रे

मुक्ति


वह बूढ़ा
निहारता है रोज पृथ्वी को
उसकी नम आँखें ढूँढती हैं कुछ
पता नहीं किसको,
उसके अन्दर फैली अंधेरी गुफाओं में
जहां,पृथ्वी के अन्दर से
उठती हरियाली के बीच कुछ
जो खेतों के ऊपर लहरा जाती है।
जहां उसका वजूद
एक ताकत महसूस करता है
उसे लगता है माँ का आँचल भी तो
पृथ्वी के ऊपर लहराती हरियाली की तरह है।
कुछ कणों को उठा कर -
वह बूढा
निहारता है अपने आसपास के माहौल को
जहां तक उसकी निगाह जाती है
दूर एक सूखे टीले को देखते ही
घबरा जाता है
उसे लगता है कि
उसके चेहरे पर फैली झुरियां
उस टीले पर अंकित हो गयी हैं
डरावनी जरूर हैं पर आकर्षण भी पैदा करती हैं
आखिर उसी टीले पर तो कई बार बैठा है।
सर्द हवाओं के चलते
सवेरे की गुनगुनी धूप के कारण ही तो
उसके खेत की हरियाली भी तो आकर्षण पैदा करती है
शायद इसी के चलते                                                                                            
पृथ्वी का आकर्षण भी तो
मनुष्य को खींचता है अपनी ओर
कभी जीवन बनकर तो कभी-
मुक्ति  का द्वार बन कर।
इस रहस्य को समझते ही
उसकी आँखों की चमक
उसके चेहरे की झुर्रियों के बीच उभरने लगती है,
और वह
कुछ समय के लिए
पृथ्वी की छाती पर लेट कर
आकाश को घूरने लगता है
उसे लगता है कि
शायद उसको मुक्ति  का द्वार मिल गया है।