बादलों की
बादलों की गडगडाहट पर
गाती हैं बुँदे
सागर की उछाल पर
नाचती हैं लहरें
वृक्षों की धडकनों पर
लहराते पत्ते
बजाने लगते हैं मृदंग
धरती की छाती से निकली
छुअन पर
नाच उठता है जीवन
और जमीं की छाती से
सिर उठाने लगती है
नन्ही कोंपलें
फिर क्यूँ
इतने गहन संगीत से भरी कायनात के
ह्रदय में,
द्रवित रहते हैं हमारे अहसास
और क्यूँ नाचने को आतुर
हमारे कदम
डूबने लगते हैं
शर्मीले भावों के नद में
कुछ खोजते हुए.
जबकि नाचते-नाचते मैं
थक जाता हूँ
पर वे नहीं थकते कभी
ऐसा क्यूँ ?
ऐसे सवाल मेरे मन में
अक्सर गूंजते हैं
फिर एक कोशिश----
तभी एक पत्ता
थाम लेता है मेरा हाथ
अनजानी ध्वनियों की गूँज में
तब झूम जाता है मेरा मन.
*******