Tuesday, October 20, 2009

तीन कविताएँ - बसंत कुमार परिहार

आदमी बहुत छोटा है

आओं,
इन हवाओं के साथ मिलकर गाएं
इनकी सरसराहट में
प्रादेशिकता की बू नहीं -
न मजहबी तास्सुबे, न कटुता -

आओं,
इन विहगों के साथ मिलकर गाएं
और उडें निर्भीक होकर -
इनकी दुनिया में
न दहशतगर्दी है,न आतंक -
इन्हें न सैलाब का डर है
न किसी आंधी या तूफान का-
इनकी दुनिया में आंतकवादी नहीं होते,
हवाओं की तरह
इनका जीवन भी मुक्त है बन्धनहीन.
अपनी इच्छा से उड़ते हैं ये प्रवासी -
इनकी दुनिया में कोई रोकटोक नहीं
न कोई बंधन है पासपोर्ट का
न प्रवास - पत्र की जरूरत-

हवाओं की तरह
गुदगुदा लेते हैं ये सीना
चढ़ी नदी का-
घुस जाते हैं पर्वतों की फटी दरारों में-

पेड़ों से कर लेते हैं छेड़खानी -
अपने पंखों पर
तोल लेते हैं ताकत तूफानों की.
आदमी कितना छोटा है इनके आगे!
खुद अपने आप से डरा
अपने बन्धनों में बंधा
अपनी ही रस्सियों में कसा-

आओं, हवाओं के साथ गाएं
पक्षिओं के साथ उड़ें !

परिंदा

मैंने जब- जब
पानी की सतह पर
चलने की कोशिश की
मुझे उस आसमान से डर लगा
जो सागर में छिपा
थरथर काँप रहा था
और हैबत खाई नजरों से
मुझे घूर रहा था

सागर में दुबका बैठा वह भीरु
अगर
तनकर खडा हो गया होता
जुल्म के खिलाफ उठी
किसी तलवार की तरह
तो सच कहता हूँ
मेरे भीतर जो बैठा है अदम्य
पानी की सतह पर चल पड़ता पुरजोर !

यह अन्दर का ही भय है
जो मारता है मनुष्य को
वर्ना
पानी चाहे कितना ही सुनामी बनकर
क्यों न गरजे या लरजे
कहीं वह
संस्कृतियों और मनुष्यों को मिटा सकता है !

मैं जानता हूँ
कि मैं चल सकता हूँ
सतह के ऊपर
लेकिन
पहले मुझे
उस हिलते हुए आकाश को
बाँध लेना है अपनी बाहों में
जैसे वह छोटा सा परिंदा
बाँध लेता है आकाश को
अपने पंखों की परवाजी कुव्वत में
और अपनी छोटी सी आँख में
बिठाकर उसे
घूमता रहता है उन्मुक्त -
गुदगुदा लेता है
नदिओं , सरोवरों और सागरों का सीना
और उठा ले जाता है
पानी की बूँद में बैठा नायाब मोती !

परिंदे की दुनिया में
डर का नाम लेना वर्जित है
इसीलिये शायद
हवाई जहाज ईजाद करने वाले इंसान से भी
कहीं ज्यादा लम्बी
उड़ान भर लेता है परिंदा !


जमीन से पहचान

आसमान की ओर ताकने से
तकदीरें तो बुलंद नहीं हो जातीं -
पता नहीं शायद इसी गलतफहमी में
इस देश के लोग
आज तक
ताकते रहे हैं आकाश
और भूतली साजिशों से
नितांत बेखबर रहे !

ऋतुचक्र तो घूमना था- घूमता रहा
बसंत आया - अनदेखा कर दिया
शरद मुस्काई - हेमंत सिसियाई
थरथर कांपते काट दीं शिशिर की रातें
निदाध के दाग भी सहे सीने पर-
तुम्हारी दुर्दशा देख
क्वार भी भाग गया फटा गूदड़ समेत!

नजर झुकाकर
जरा देखते तो सही अपनी जमीन
मूसलाधार वर्षा ने
कैसा दलदल कर दिया है सबकुछ
तुम्हारे पांवों तले-
लेकिन अब खुलने लगा है आकाश
और मौसम भी होने लगा है साफ जरा-जरा
पर तुम
दलदल में धंसे रहना
अपनी नियति समझ बैठे हैं -
कम्बल में गुच्छू -मुच्छू बैठे
आकाश ताकते रहने से
तुम आकाश के तारे तो नहीं तोड़ सकते ?

उठो !
निकलो दलदल से बाहर
और तुम्हारे इर्द-गिर्द
जो सब्जा उग निकला है
उसकी रावट महसूस करो !
अब तक कुल पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित तथा कई पुरुस्कारों से सम्मानित।
वर्तमान में -त्रैमासिक -पत्र 'आकार ', अब अहमदाबाद आकार का लगातार सम्पादन ।
संपर्क -१/१, पत्रकार कालोनी , नारायणपुरा , अहमदाबाद (गुजरात )
फ़ोन : ०७९-२७४३५८०१

Monday, October 19, 2009

आस्था अनंतिम (कहानी) - राज कुमार गौतम

स्था का यूं जबरन बुलाना .......अनंतिम को पहेली - जैसा लग रहा था . अभी दो महीने ही तो गुजरे हैं मुलाक़ात हुए . मुलाक़ात नहीं , 'मुठभेड़ ' हुए -अनंतिम ने सोचा और शरारती मुस्कराहट का मजमा उसके चेहरे पर नमूदार हुआ . फ्लाईट का सहयात्री भी मानो इस मजमे का मज़ा ले रहा था. आस्था तो इस 'मुलाक़ात' से मानो सहम ही गयी थी . "इतना आक्रामक होने की क्या जरूरत थी ?" अनंतिम से सवाल पूछते हुए आस्था भी कम आक्रामक नहीं थी !

"क्योंकि मैं अपने ज्ञान और व्यायाम के सर्वोच्च शिखर पर था. इसलिए . आज की समझदार और मेच्योर दुनिया में सफल होने के लिए आक्रामकता और दुस्साहस की जरुरत है . दैट्स इट!"

आस्था ने स्वयं को तेजी से समझाया और चुपा गई. 'कुछ होने तक इन्तजार करो '-का सूत्र उसे याद आ रहा था आस्था की निःशब्दता से अनंतिम को फिर गलती लगी थी उसे समझने में . अनंतिम जो कि जीवन को एक तंत्र , पद्धती की तरह सोचता है और आस्था जो कि जीवन को एक महान संस्था के रूप में पाती है . नदी की तरह बहता आता है जीवन और पता नहीं हिम कण का कौन - सा कतरा हमें पानी की तहों में एकाकार कर देता है . प्रकृति के इस करिश्मे में नेतृत्व किसी अदृश्य का है - ऐसा मानती है आस्था , जबकि अनंतिम की 'लीडर ' और 'ग्रेट ' होने में रूचि है . दिन को जीना छतीस घंटे के बराबर - यह जीवन- दर्शन है . उपलब्ध चादर से बाहर सोचना और सोना - यह प्रयास है और ज्ञान के बलबूते पर भविष्य को सामने से झेलना - यह शूरवीरता है अनंतिम की . जीवन की सायं-सायं करती नीरवता के नहीं , शंखनाद के बीच जीना पसंद आता है अनंतिम को
"मगर इससे तुम्हें विजय के उल्लास भाव से वंचित होना पड़ता है ." आस्था ने टिपण्णी की थी एक बार.
"आस्था, तुम्हें नहीं लगता कि जीवन की भी मार्केटिंग होनी चाहिए. इस बाजार को बढना और फैलना चाहिए. हमारी- तुम्हारी एकल दुनिया की एक पर्सनल लैंग्वेज होनी चाहिए. उत्पादन और आधुनिक तकनीक का संतुलन स्थापिक होना चाहिए." अनंतिम का पेशेवर व्यक्तित्व बोल रहा था, मगर उसका व्यक्ति कहीं हिचकोले ले रहा था. आस्था ने उन हिचकोलों की सवारी गांठी. "सच बताना अनंतिम, तुम्हारे जीवन- आदर्शों के चलते तुम्हें साथी के रूप में एक प्रियतम चाहिए थी या बाजार की परिस्थितियों को बेहतर पहचानती एक ऐसी औरत जो कि अपने मादरजात आकर्षणों को बेचकर तुम्हारे भविष्य को अगले सौ वर्षों तक सुरक्षित कर पाती?"
वाक्पटु अनंतिम का उत्तर एकदम किताबी था, "उस औरत के भीतर से मैं अपनी प्रियतम को आरक्षित कर लेता और उसके शेषांश को बाजार में चढ़ा देता. इस रणनीति के साथ कोई राजनीति नहीं, कोई मर्दवाद भी नहीं. फिर भी कहता हूँ कि घिसे- पिटे आदर्श, जैसे संबंधो की पवित्रता वगैरह-उतने गए - गुजरे भी नहीं थे. जीवन की नई चुनौतियों को मैं खारिज नहीं करूंगा, बल्कि उन्हें टालना या सहना चाहूंगा. समस्याओं के निदान में तेजी से विकास आना चाहिए, नव और भव्य क्रिएटिविटी के साथ."
"ठीक ऐसा ही तुमने मेरे साथ किया. पहले प्रेम करने का जोखिम उठाया, फिर सम्मान प्रदान करने के तौर पर शादी रची!" आस्था के इस सवाल या जवाब से अनंतिम परेशान नहीं हुआ. समझाने का स्वर था उसका, "तुम मानव इतिहास देखो आस्था , क्या है उसमें सिवाय मूल्य, सौंदर्य, व्यक्ति और समाज की जान-माल की सुरक्षा, बेहतरी और श्रेष्ठता के लिए ख़ास आकर्षणों आदि के. इन सबको हमें प्राथमिक स्तर पर देखना होता है. यह बदलता जीवन है ....बारहमासी वसंत आने को है. इस पर विलाप करने की कोई गुंजाइश कहाँ!"
संवाद के इस अंश को ही आस्था ने उस 'मुलाक़ात' से जोड़ लिया था. शादी के वर्षों बाद उन दोनों ने फैसला किया कि इस अकेली और इकहरी गृहस्थी में अब संतान को भी आमंत्रित किया जाए. सफलता के लिए एक बार फिर से ज्ञान को सीढ़ी बनाया था अनंतिम ने. देश के दूरस्थ शहरों में अलग-अलग शानदार नौकरी करने की विवशता झेलते हुए भी आस्था अनंतिम ने एक- दुसरे में समर्पित-निसर्जित होने का संकल्प लिया था. दोनों के लिए ही अवकाश लेना एक समस्या थी और फिर उन ख़ास तिथिओं में अवकाश लेना, जबकि ऋतुमती होने के बाद आस्था संतानोत्पत्ति की शर्तिया खान बनी हुई हो.
बमुश्किल चार दिन - रात का इंतजाम हो पाया उस लहलहाती अवधि में . आस्था, अनंतिम के लिए फ्लाइट की बुकिंग हो गयी और किसी तीसरे शहर में उन दोनों के लिए पांच सितारा होटल का कमरा भी. हलाँकि अब तक वे एक-दूसरे के लिए खुली किताब बन चुके थे, मगर इस बार उनके पास एक चाबी भी थी, जिनके जरिये वे एक शिशु के लिए आगमन द्वार खोलने को उद्धत थे.
सब कुछ नाप-तौल कर हो रहा था, मगर ऐन वक्त पर प्रकृति अपनी चाल चलने से बाज नहीं आई. उन तीन दिन-रातों तक आस्था की देह से अनंतिम के लिए गाली बहती-रिसती रही और इस चक्र विलंब का स्पष्टीकरण उन दोनों के पास नहीं था. खीझ और औने-पौने शरारत पूर्ण कृत्यों से पांच सितारा होटल का वह कमरा भी किच-किच होता था.
अंतिम दिन होने के उदासीपूर्ण एहसास को अनंतिम ने तोडा, होटल का कमरा बदल कर. अनंतिम ने फिर तय किया कि प्रकृति से पराजित नहीं होना है उसे. सीप में मोती की स्थापना के लिए जरूरी है कि अपने ज्ञान के विशवास को रत्नजडित बनाया जाए .
"आस्था, मैं चाहता हूँ कि हम केवल एक बार मिलें. मुझे पूरा यकीन है कि यह श्योर शाट होगा. और यदि हम असफल रहे, तो फिर जल्दी ही छुट्टियों का जुगाड़ कर लेंगे."
अनंतिम की इस शरारत को आस्था ने अपनी आँखों में गहरे छिपा लिया था.
आस्था के लिए वह रात ब्रहम्मांड के दिखते-छिपते हजारों चाँद लेकर आई. बिस्तर पर फूलों लदी घाटी उग आई थी और खुशबू के तमाम समन्दरों ने अपनी लहरों में उसे सराबोर कर दिया था. उसका शरीर एक महाकाय वाद्य यंत्र था जो जरा - सा झंकृत होता, तो तमाम अजन्मे शिशुओं की समवेत किलकारियां उसके कानों में धक्का-मुक्की करतीं .
"आस्था !" अनंतिम ने पुकारा था उसे और परीलोक से बाहर आते ही वह कांप उठी . अनंतिम दवाओं के कुछ काले नीले रैपरों को पुचकार रहा था और अगले ही पल उसने स्वयं को मानो इस मारामारी कि सहभागी नहीं, प्रतिभागी बना लिया था .
अब आस्था हिस्त्र पशुओं के बाड़े में घिरी थी , उनकी भूख -प्यास, नफ़रत, हिंसा , नुकीले सींगों,कटखने दांतों और बघनखों को झेलती . अनंतिम एक उत्तम तैराक कि तरह डुबकी लगा रहा था और उसकी नसों में दवाओं का दैत्य हरहरा कर बह रहा था . पांच सितारा होटल के उस कमरे में आस्था का आसमान गायब था और पाताल में डूबते हुए उसका दम घुट रहा था. अन्तरंग संबंधों के शव को नोचने सियार, गिद्ध कौवे .... सब इकट्ठा हो रहे थे . हजारों चूहों कि कुतरन...... लाखों आक्टोपसों कि भुजाओं कि लिजलिजी जकड़न ......!
प्रलय के कुछ पलों के बाद आस्था ने अपनी बगल में एक बेस्ट परफार्मर को मुहं फाड़ कर सोते हुए पाया. रात भर स्लो मोशन में नरक का दृश्याव्ला आस्था की देह में रस्सी बन कर तनी रही.
"मैं तुम्हारे प्रेम भरे दिल से तिरोहित होना चाहती थी, अनंतिम."
ऐसा सोचते ही आस्था को रोना आ गया.
फाइव स्टार होटल का वह कमरा किसी और के नाम बुक हो गया. फ्लाइट्स ने उन दोनों को अपने-अपने शहर के फडफडाते सीने में उतार दिया. नलों में पानी आता रहा. समर्थकों के लिए बाबा लोगों के प्रवचन जारी रहे. घडियां टिकटिकाती रहीं. कैलेंडर से दिन मुहं छिपाते रहे और इस सारी चलायमान स्थिति में आस्था ने देखा और फिर डॉक्टर ने पक्का किया कि हाँ, वह रूक गई है!
उधर अनंतिम भी व्यकुल था. 'फोक्स' गोल या श्योर शाट के परिणाम को जानने के लिए. महीना बीत जाने पर पल-पल की पूरी जानकारी. उसने जिन्दगी का सर्वाधिक पेचीदा दावं लगाया था. आस्था भी एक-दो दिन ही छिपा सकी इस सच्चाई को. 'डील' के सफल होने की सूचना से अनंतिम तो एकदम तर-ब-तर. एक पल में छत्तीस हजार बार पीठ ठोंक डाली अपनी.
सप्ताह भी नहीं बीता कि अनंतिम के लिए वह सफलता विगत हो गयी. फोन पर वह इस बात की चर्चा भी नहीं करता, जबकि आस्था के दिन-रात महाभारत हो चले थे. आस्था ने जब
इसे मुद्दे की तरह बनाना तो अनंतिम ने फैसला दिया,"कीप इट सिंपल. लो प्रोफाईल्ड ."
मगर आस्था को चैन कहां! कैसी उद्दाम हिंसा और वासना के स्वाद ने उसकी कोख को
छुआ है. इस घृणा और अनचाहे ममत्व को आजन्म कैसे बर्दाश्त किया जा सकेगा ? उसने स्वयं को यह समझाने की कोशिश की कि पीड़ियों के अन्तराल में चीजें नहीं रहतीं, मगर
शिशु को प्रेम से दुनिया में न लाओ, इससे तो पूरी मानवता को ख़तरा है. हाँ इतना वह मानती
है कि नर-मादा की गर्भाधान के वक्त की मानसक स्थिति का आंशिक अवतरण आने वाले जीव में होता ही है.
भ्रूण हत्या ...! आस्था पूरी बात सोचने से पहले ही सिहर उठी. उस जीव का भला क्या दोष जो कि एक परिणाम या उत्पाद के रूप में सामने आने को है. हाँ, दोष तो उस बाजारू
प्रबंधन का है जिसने जाने-अनजाने शिशु के आगमन को अपंगता दे डाली है. और माध्यम
बना है-अनंतिम.
आस्था की गंभीरता और दृडता देख कर ही अनंतिम छुट्टियों का जुगाड़ करके पहली फ्लाईट से आ रहा है. आमने-सामने हो कर ही आस्था जानना चाहेगी कि क्या कहा जाए?
लंबा- सा विवाद है. संवाद दोनों के माध्यम से गायब. शिशु हन्ता बनें - यह बात भी दोनों को मंजूर नहीं. तो फिर प्रायश्चित और पश्चाताप ही बचता है. ...और अंत में आस्था, अनंतिम एक बिन्दु पर पहुंचे हैं कि आने वाले शिशु के लिए यह घटना एक लिखित दस्तावेज बने और
सही समय आने पर वह इस कुरूप सचाई को जान सके .
वाक्पटु अनंतिम का मस्तिष्क फिर भी कुछ सुझाने से बाज नहीं आता, "आने वाली दुनिया में प्रेम और एकता ही सबसे बड़ी और उपयोगी तकनीक होगी. आदर, टीम वर्क,आमोद - प्रमोद ,परस्पर विश्वास ,श्रेष्टता तथा सर्जना ...अंततः इन्ही से जिंदगी संवरेगी . मैं नहीं मानता कि दोषारोपण के आत्म स्वीकार से मैं अच्छा सिद्ध होऊंगा या ओछा ...मगर हां,गलती मुझसे हुई है ...शायद !"
और हां ,आस्था ने यह कहानी स्वयं लिखी है अपने अजन्मे शिशु
के लिए .



कई पुस्तकें अब तक प्रकाशित तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान , लखनऊ द्बारा सम्मानित।
६०/४ सी सेक्टर -२ डी आई जेड एरिया , काली बाड़ी मार्ग , न्यू दिल्ली -११०००१
०९९३३२६५१९९ , ९३१३६३६१९५

Monday, September 21, 2009

अशोक आन्द्रे

बुढ़िया , किला और नारियल


गोले दागते नारियल के पेड़ झर रहे हैं ।
खामोश जातियों के खामोश किले
जंग लगे दरवाजों के पार
कुत्तों की भौंकती आवाज पर चौंक उठते हैं ।
कहीं कोई दृश्य उभरता नहीं है ,
रेतीले रास्ते ,
इधर -उधर फैल गये हैं ।
किले के दरवाजे
टूटी खिड़किओं से झांकते हैं कुछ ?
लेकिन नारियल के पेड़ झर रहे हैं ।

अचानक एक बूढी़ आत्मा
अपने को मैली - कुचैली धोती में छुपाए
लोहे के दरवाजे से देखती है कुछ ,
मानो शांत खडी
खोज रही है किसी को
न पाकर उदास हो जाती है
किले का दरवाजा बंद है
हवा में दहशत है,
क्योंकि नारियल के पेड़ झर रहे हैं ।

कुछ भी सामान्य नहीं है किले में
कुर्सी - मेजें तीन टांगों पर खड़ी
घूरती हैं मुख्य रास्ते को
जहां कभी कारवां गुजरता था
हाथिओं , घोडों तथा सैनिकों का दल ,
महल के मुख्य दरवाजे की ओर
बुढ़िया अभी भी ताक़ रही है खामोश
क्योंकि नारियल के पेड़ कुछ नहीं कहते,
सिर्फ झर रहे हैं लगातार ।

महल के दालान में
हाथी पर सवार दो मूर्तियां अभी भी
उसी दम -ख़म के साथ पहरा दे रही हैं ,
कोई पार नहीं कर सकता दालान को
मानो ! आज्ञा का इन्तजार अभी भी हो रहा है
मानो दोनों मूर्तियां रोक देंगी रास्ता हर आने वाले का
बुढिया अन्दर नहीं जा रही है
प्रवेश द्वार से घूरती है लगातार
एक द्वंद्व चल रहा है -
उस बुढ़िया तथा महल के बीच
पौधे , वृक्ष के नीचे कतार बांधे
लील रहे हैं शाम की डूबती धूप को
रात , लोहे के गेट से अन्दर आना चाहती है
महल के नीचे तहखानों में छिपी आत्मायें
करने लगी हैं हलचल
उनके इस शोर से सभी डरते हैं,
अगर नहीं डरता कोई तो वे नारियल के पेड़
जो झर रहे हैं आज तक ।

खामोश जातियों के खामोश किले
दम तोड़ने की कोशिश में
आंखों पर पट्टी बाँध चुके हैं ।
लेकिन बुढ़िया अभी भी झांक रही है
महल खामोश है सदियां चुप हैं
इतिहास भी खिसक गया है कहीं ,
दोनों मूर्तियाँ अभी भी पूरे किले की
मातम पुर्सी के लिए
महल के नीचे तहखानों में छिपी
आत्माओं को
न्योता दे रही हैं ।
तभी दबे पाँव बुढिया प्रवेश करती है .......
ठीक दालान के मध्य ,
झरता नारियल का पेड़ दाग देता है एक गोला ,
फैल जाते हैं इतिहास के पन्ने चारों ओर ,
कई चेहरे किसी एक चेहरे को उठाए
महल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगते हैं
मूर्तियां भी देती हैं रास्ता उनको
बुढ़िया तहखाने में छिपी आत्माओं के साथ
अदृश्य हो जाती है ,
नारियल फिर भी दागता रहता है गोला ,
क्योंकि बुढ़िया उन आत्माओं के साथ फिर - फिर
लौटेगी ,
क्योंकि उसके तथा महल के बीच चल रहा है द्वंद्व सदियों से ,
क्योंकि मूर्तियां तो हटेंगी नहीं
और रास्ते फैलते रहेंगे इसी तरह
हाँ , नारियल भी जरुर , दागता रहेगा गोला
ठीक , इसी तरह ।

Sunday, June 14, 2009

कविता - अशोक आंद्रे

पता नहीं मैं कहाँ आ गया हूँ ?
क्यों कि आना अपने हाथ में नहीं होता है ।
लोग कहते हैं कि आना ही पड़े तो ,
बिना आवाज किए आना चाहिए
जैसे हवा नासा में घुस जाती है
जैसे दहशत पूरे शरीर में समा जाती है
जैसे पानी में जीव आ जाता है
जैसे रात होते ही सपने किसी तूलिका में घुस आते हैं
और माँ के आनंद में जैसे विश्वास घुस जाता है
तब पता चलता है कि हम कहाँ आ गए हैं ।

Monday, March 9, 2009

संस्मरण -अशोक आन्द्रे

जब मौत से मेरा साक्षात्कार हुआ

जीवन में अक्सर कई ऐसी घटनायें घट जाती हैं जो लंबे समय तक मस्तिष्क पटल पर ज्यों - की- त्यों अंकित हो जाती हैं । ठीक इसी प्रकार की एक घटना अगस्त ,७६ के आसपास मथुरा में घटी थी , जिसे याद करके आज भी सिहर उठता हूँ ।
उन दिनों मैं पी सी एस की तैयारी कर रहा था । घर में शोर- गुल से तंग आ कर मैं एक दिन किताब ले कर यमुना के किनारे चला गया । वहां पहुंच कर मैं २५ पैसे में नाव द्वारा यमुना पार कर के दूसरे किनारे चला गया । वहां एक भग्नावशेष था जो हर साल बाढ़ के दिनों मैं डूब जाया करता था । इसलिए उसकी दीवारों पर शैवाल की - सी चिकनाहट उभर आई थी । लेकिन एकांत होने के कारण पढ़ाई के लिए सर्वथा उचित स्थान था ।
उस दिन जब मैं उस टीले पर बैठ कर पढ़ाई में व्यस्त था , तो पता नहीं कब और कहां से एक सांप का जोड़ा वहां आ कर मस्ती में झूमने लगा था । कुछ पल बीतने के बाद मेरा ध्यान उनके फूफकारने से टूट गया । मैंने देखा उनमेँ से एक अपना सर उठाए इधर - उधर लहराता हुआ क्रोध मैं फुफकार रहा था । देख कर मैंअन्दर तक सिहर गया । लगा , आज वास्तव में मैं अपनी मौत से साक्षात्कार कर रहा हूँ । घबराहट में , मैं खडा हो गया । सांप बार - बार मेरी तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा था । लेकिन चिकनाहट होने के कारण उसकी चेष्टाएँ लगातार असफल हो रहीं थीं । जिसके कारण उसका क्रोध अपनी चरण सीमा पर जा चुका था ।
शायद मुझे अभी जिंदगी में बहुत कुछ करना है । ये शब्द मुझे बार - बार घबराहट से उबार रहे थे । इसी बीच भाग्यवश एक नाव उधर से होकर गुजरी । उस पर बैठे मल्लाह ने शायद उस दृश्य को देख लिया था । वह पास आ कर जोर - जोर से पुकारता हुआ कह रहा था ,-भैया , तुरन्त टीले के दाईं ओर आ कर पानी में छलांग लगा दो । मैं नाव ला रहा हूँ ।
मुझे तैरना भी नहीं आता था । लेकिन जीने की तीव्र चाह ने मुझे छलांग लगाने को प्रेरित किया । मैंने कुछ सोचे बिना पानी में छलांग लगा दी और मल्लाह ने मुझे बचा लिया । वह मुझे दिलासा दे रहा था , लेकिन मैं बार - बार उस और देख रहा था , जहां कुछ देर पहले मैं मौत का सामना कर रहा था । आज भी उस घटना को याद कर के मैं रोमांचित हो उठता हूँ

Thursday, February 19, 2009

रूपसिंह चन्देल की दो लघुकथाएं


कुर्सी संवाद
कॉफी हाउस की दो अलग मेजों के साथ रखी दो कुर्सियों को बेयरे ने उठाकर खुली छत पर आमने-सामने रख दिया. काफी देर तक चुप रहने के बाद एक ने दूसरे से पूछा - "बहन, बहुत दुखी दिखाई दे रही हो."

"बात ही कुछ ऎसी हो गई है." उसका स्वर भीगा हुआ था.

"क्यों क्या हुआ ?"

"मैं अपवित्र हो गई हूं."

"क्या बात कह रही हो, बहन."

"मैं सच कह रही हूं-----."

"आखिर हुआ क्या?"

"मुझे यहां आए चार साल हुए----- आज तक यहां आने वालों में साहित्यकार, कलाकार ही होते थे, लेकिन आज-----."

"आज क्या----?"

"आज------ आज एक नेता यहां आया और पूरे डेढ़ घण्टे तक जमकर मुझ पर बैठा रहा-----मैं तो कहीं की न रही, बहन." वह फफक उठी.

दूसरी की आंखें भी गीली हो गयीं, क्योंकि उसे अपनी पवित्रता भंग हो जाने की चिन्ता सताने लगी थी.

( १ जनवरी,१९८५)


निराशा

उस दिन मोहल्ले में एक खतरनाक वारदात हो गयी थी. किसी सिरफिरे ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी. चारों ओर सनसनी फैली हुई थी और पुलिस की गश्त जारी थी. बाजार बन्द था. सारा दिन गुजर चुका था, लेकिन सड़क में गश्ती सिपाहियों के अलावा किसी आदमी की शक्ल दिखाई नहीं पड़ी थी. कभी कभार कोई कुत्ता दुम हिलाता हुआ अवश्य गुजर जाता था.

वह सुबह से ही इन्तजार कर रही थी कि शायद कोई आ जाये, लेकिन सारा दिन खाली बीत गया था. इस समय उसकी जेब में दस-दस पैसे के मात्र पांच सिक्के पड़े थे और वह सुबह से ही भूखी थी. वह निराश होकर पलंग पर लेट गयी और सिपाहियों और कातिल को मन ही मन कोसने लगी . उसे अभी भी आशा थी कि शायद कोई ग्राहक सिपाहियों की नजर बचाकर आ जाये. उसके कान जीने की ओर लगे हुए थे. एक बार उसे लगा कि कोई जीना चढ़ रहा है. वह हड़बड़ा-कर उठ बैठी . शीशे के सामने जाकर बाल और कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन तब तक आगन्तुक दो बार दरवाजा खटखटा चुका था. उसने खुश मन से दरवाजा खोला. आने वाला, गश्ती पुलिस का एक सिपाही था.

वह घबड़ायी-सी एक ओर हटकर खड़ी हो गयी. सिपाही ने मुड़कर दरवाजे की कुण्डी चढ़ा दी और बोला, "घबड़ाओ नहीं, मैं तो यह देखने आया हूं कि तुमने कॊई ग्राहक तो नहीं छुपा रखा." और वह उसकी बांह पकड़कर अन्दर की ओर ले गया. वह कोई प्रतिरोध नहीं कर पायी. थोड़ी देर बाद सिपाही के वापस लौट जाने पर दरवाजा बन्द कर वह पलंग पर ढह गयी. अब वह और अधिक जिराश थी, क्योंकि उसकी जेब में अभी भी दस-दस के पांच सिक्के ही पड़े थे और उसे बहुत जोरों से भूख लगी हुई थी.

(१९८४)


रूपसिंह चन्देल माइकी के साथ
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
दो चिट्ठे-
रचना समय और वातायनसंप्रति: roopchandel@gmail.com roopschandel@gmail.com

Sunday, February 15, 2009

अशोक आंद्रे



माँ के लिए
(१)

माँ ! तब भी तुम विद्यमान थी

कुछ नहीं था जब
इस संसार में

ब्रहम्मांड में तुम्हारी कोख ब्लैक होल की तरह

बिग - बेंग की रहस्यता को समेटे

विश्व को नया सृजन देने का सार्थक प्रयास कर रही थी ।

माँ ! मैं अजन्मा

विश्व के तरंगित वलयों में

निजता के लिए रास्ते खोज रहा था ,

तब अँधेरा घना था

खामोशियों की तह में दबी

इच्छाओं का दैहिक रूप ले रहा था विस्तार

माँ ! उस विस्तार को जना है तुमने

इस धरा की पहली किरण ने

अस्पष्ट फुसफुसाहटों को

अर्थ देने की कोशिश में बताया था मुझे ।

यह भी सच है कि उस वक्त

घबराहट के दैत्य असंख्य रूप धर रहे थे ,

तुम्हारी छाती को प्रथम ज्वार - भाटा के लिए

कर रहे थे तैयार ।


सवाल ज्वार - भाटा का नहीं था

कुछ था तो सिर्फ़ -

मेरे आकार को भू पर उतारने का था .....

तुम्हारे भागीरथ प्रयास का ही तो नतीजा हूँ में

तभी तो ईश्वर की आँखे चमक उठी थीं ,

बादलों ने गड़गड़ाहट के नगाड़े बजाये थे

ओर घाटियों ने फूलों के कालीन बिछाये थे ;

नदियाँ कल - कल करतीं वीणा के तारों को

झंकृत कर रही थीं अनवरत ......

आख़िर मेरे वजूद का सवाल अहम् था माँ तुम्हारे लिए

युगों - युगों तक धारण करती रही हो मुझे

मेरे ही वजूद की खातिर ।


(२)

गंतव्य तक पहुंच कर

किसी अंधे कुँए में झांकते हुए

अपने प्रतिबिम्ब को देखना

कृति हो सकती है / अनाम , अनजानी शक्ति की

लेकिन माँ के इच्छित हस्तक्षेप के बिना

उस कृति का समरूप

किसी पोखर में अनंत युगों से

ठहरे हुए पानी की सड़ांध के सिवाय

भला और क्या हो सकता है ?

Saturday, February 7, 2009

अशोक आन्द्रे

आतंरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर


जाता हुआ व्यक्ति / कई बार फिसल कर


शैवाल की नमी को छूने लगता है ।


जीवन खिलने की कोशिश में


आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में


अपने ही घर के रोशनदान की आँख को


फोड़ने लगता है।



मौत जरूर पीछा करती है जिवात्माओं का


लेकिन जिंदगी फिर भी पीछा करती है मौत की -


गांठने के लिये सवारी ।


सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को


उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है ।


कई बार उसे पूर्वजो द्वारा छोड़े गये ,


सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को ,


गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है ।


जबकि समुन्द्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए


चिंघाड़ता है अहर्निश ।



आख़िर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है


इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे


चाहे शुरू का हो या फिर / अन्तिम यात्रा की बेला का ,


क्योकि कंपन की लय / टिकने नहीं देगी उसे ,


जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा


उत्तेजित करता रहेगा चीखने - चिल्लाने के लिए


शायद उसके आतंरिक सुकून के लिये ।



बुलंदियों को छूते हुए


बुलन्दी को छूने का अर्थ


कितना सहज होता होगा


उन लोगों के लिए ,


जिनका सोचना


सोचने से पहले / चुप्पी साध लेना ।


जैसे आंधी के बाद


झोंपड़ियों का यथार्थ हो जाना


जैसे सत्तर को छूते शरीर का


अपने ही मकड़ - जाल में उलझ जाना ,


यानी बलात्कार के बाद


खुली खिड़की से


सुनसान , बेखबर


सड़क को सड़क से जानना ।


और फिर


आकाश को देख


ठंडी सांस लेना


यानी हजारों - हजार के खून को


ठंडी बोतल में भरकर


कोरे कागज पर


लम्बे भाषणों को तैयार करना


उस व्यक्ति के बारे में


जिसे समय की जरुरत (घोषित कर)


उसके कंकाल से


युद्ध सामग्री तैयार करना


और समय के साथ


बहती चीखों के विपरीत


ऐतिहासिक प्रतिध्वनियों को


दस्तावेज के तहत दीवारों पर


अंकित करते हुए


सन्नाटा हो जाना ।


हां ! कितना सहज होता होगा ,


इस तरह बुलन्दियों को छूते हुए


सोचने के साथ


महान हो जाना ।

Tuesday, February 3, 2009

अशोक आन्द्रे

धर्म और संस्कृति

एक हताश फटी रोशनी के बीच

कुछ शब्द

कैद कर रखे है संस्कृति के तुमने

दम तोड़ते हुए

अँधेरे बंद गलियारों के मध्य

जहाँ धर्म

रोशनी के चेहरे पर

कालिख पोत देता है ।

अगर ऐसा नहीं होता तो कैसे

एक ही धर्म के दो व्यक्ति

जान के प्यासे हो गये

और उँगली को संस्कृति के

पेट में घुसेड़

वर्तमान की लड़ाई को

अतीत के अप्रिय धब्बों में छिपाए

सफेद पन्नों पर स्याह-सफेद करते रहे

और धर्म की आड़ में

संस्कृति की फाख्ता काटकर

विजय -दुंदुभी बजाते रहे ?

जबकि इतिहास गवाह है , कि

संस्कृति धर्म से ऊपर होती है

अरे पागलो ! हत्यारों की भी

कोई संस्कृति होती है !

बुढ़ापा

सन्नाटा है !

पता नहीं क्यों

किस बात का भय

साँस लेता है

शिराओं में

जिन्दगी का फलसफा

एक - एक कर

आत्महत्या कर रहा है

हृदय की गोधूली का द्वन्द्व

आँखें फाड़े

बुझती आँच पर

धुआँ - धुआँ होता है

यह उम्र का अँधेरा है

जो , अब गहराने लगा है ।

Monday, February 2, 2009

अशोक आन्द्रे



खिलाफ अंधेरे के

झुकी हुई आंख तुम्हारी

ऊपर उठकर

सामने घाटी के बीचों - बीच

दृश्यावलोकन करेंगी जब

ठीक उस वक्त

झोंपड़ियों के सिरे से

उठने लगेगा धुआं ।

और बच्चे अपनी - अपनी मां की गोद से

निकलकर भागने लगेंगे बाहर की ओर

खिलाफ अंधेरे के ,

जड़ों से निकलती हरियाली की तरह

खिलखिलाते हुए ।

पता है उनको

घर के सारे बर्तन उलटे पड़े हैं ।

एक इन्तजार........शायद

मुर्गी ने कुछ अंडे दे दिये होंगे

उबालकर जिन्हें , उनकी मां

रखेगी सहेज कर

लार टपकाती बिल्ली से दूर ,

कि बच्चे जब तक लौटेंगे ,

उसके गर्भ से

एक और फूल खिलकर

धुआंती सांसों के बीच

पूरी घाटी को

आतंकित कर जायेगा ,

कि उनका भविष्य

भूत से ही

मांग रहा होगा ,

थोड़ी - सी आंच ,

ताकि पलाश के

दहकते अंगार को

हवा दी जा सके ,

ताकि लार टपकाती बिल्ली को

उबले हुए अंडों से ,

दूर किया जा सके ।


फुनगियों पर लटका एहसास



आँख बन्द होते ही

एहसासों की पगडण्डी पर

शब्दों का हुजूम

थाह लेता हुआ बन्द कोठरी के

सीलन भरे वातावरण में

अर्थ को छूने के प्रयास में

विश्वास की परतों को

तह - दर -तह लगाता है

जहाँ उन परतों को छूने में , हर बार

पोर - पोर दुखने लगता है ।

सनाका खाया आदमी

सन्नाटे की सुलगती आँच पर

अपने ही व्यामोह में फँसकर

बौना हो जाता है लगातार ,

इसी प्रक्रिया से गुजरता हुआ वह

अपने ही विश्वासों की

परतों को कुतरने लगता है

सयाने चूहे की तरह !

और उम्र की घिसी कमीजों को

परचम की तरह लहराकर

ऊँचाई और गहराई के मध्य

फुनगियों पर लटके एहसासों को

नोंचने लगता है ।

आखिर विश्वास की कोई हरी पत्ती तो

थामी होती उसने

ताकि कंकरीट के सहारे खड़े होते इस शहर के बीच

जंगल का एहसास

अंदर की कार्बनडाइआॉक्साइङ को

खण्ड - खण्ड कर

विश्वास के साबुत अर्थों के तकिये पर

चैन की नींद तो सोने देता उसको -

ओ मेरे जनसामान्य !

Sunday, February 1, 2009

सवाल -अशोक आन्द्रे

आदिकाल से हरिकथा अनंत के सहारे
अपने ही स्वरुप को पहचानने की कोशिश करता रहा हूँ ।
सवाल तो सवाल ही होता है,
पहेलियों की तरह
शिशु अवस्था की तरह उलझा,
फिर भी कोशिश करता हूँ पहचानने की स्वयं को
शायद पकड़ में आ सके कुछ ,
लेकिन स्पर्श पाते ही
टूटने लगता है निज का स्वरुप
टपाटप सवाल तब कमान साधने लगते है अज्ञात की ओर
सवाल तब भी उठते है ,
जब दक्षिणी ध्रुवों की तरह बर्फीली धार
छूते हैं मन ,
धुआँ - धुआँ हो जाता हूँ मैं ।
हे देव ! तुम्हारी कथा की अनंतता की जगह ,
अंत का छोर फैलने लगता है
कमजोर होते दृग , भेदने लगते है आकाश को तब ।
सब जगह व्याप्त है , ऐसा माँ से सुना था ।
अंदर - बाहर सब जगह तुम्हीं हो ,
अगर हो ? तो मैं कमजोर क्यों हो जाता हूँ लगातार ,
ओर क्यों होने लगता है पाप का विस्तार ,
कहीं ऐसा तो नही कि अपने कमजोर अस्तित्व को
छिपाने के लिये , चस्पां कर देते हो मुझ पर ,
यह सारी अनंत कथाएं
हे देव.........!

अशोक आन्द्रे

कविता

(१)

हवा चली

निगाह लौटी

दीया बुझा

परदा खामोश -

सिहर गई , कुर्सी बरामदे की ।

(२)

बादल गरजा

धूप सोखी

पेड़ चीखे

बीज सहमा

सपने कुलबुलाये -

भीज गई धरती सारी ।

(३)

जब नहीं था शब्द

ध्वनि थी उस वक्त

अनर्थ नहीं था तब

अर्थ के साथ,

नाचते थे तब ध्वनि के संग

अंतस के शब्द ।

असहज

पता नहीं क्या

खोजता रहा

हथेलियों की बीहड़

रेखाओं के मध्य ,

रात उठी ......और चली गई ।

जिद

रोशनी को तलाशता

एक पहाड़ से-

दूसरे पहाड़ के पीछे भागा

लोग चीखे

धुंध छटी

पत्थर लुढ़का

बिखर गया सन्नाटा, चारों ओर ।

अशोक आन्द्रे

तलाश

(१)

सदियों से लगातार आज तक

आदि और अंत के बीच

करता रहा तलाश , एक घर की

और समय के साथ

मांस और मज्जा के बीच की

तलहटियों में ,

खोता रहा

घर के सपनों को , लगातार

(२)

रात की तरह समय

अपनी पहचान कराते हुए

पूरे खौफ के साथ

श्मशान के पूर्वी हिस्से में

पालथी मारकर

बैठ गया था ।

हम सहज ही

मेले में

खोये हुए बच्चे की तरह

करते रहे तलाश एक अंगुली की

अपने ही आसपास - ताउम्र ।



दुःस्वप्न

एक गलियारे से

दुसरे गलियारे में जाता हुआ आदमी

मृगजाल में ठिठकता है ,

सपने लुभाते हैं उसे,

विस्फोट से पहले

दहकते पलाशों में

चमकते गलियारों में ।

लेकिन नन्ही चिड़िया सहम जाती है

उसके हाथ में ,

हरी पत्ती देखकर ।