Wednesday, May 20, 2015

अशोक आंद्रे

एक सलीब और 

पराभूत होती जिंदगियां
विषाद को पीठ पर लादे
सिर कटी देह
व्यस्त चौराहों पर
समय के सलीब पर लटकी हैं.

शब्द हीन प्रणय की प्रार्थना करती
खामोश हो
अनंत गहराइयों में
रोपती हैं बीज,
आदमी है कि
अहं के दरवाजे उघाड़
विजय घोष की तस्वीर उकेरते ही
घबराहट की धार पर
शमशानी परिवेश के
रचने लगता है पन्ने,

सुनो, जंगल दहाड़ रहा है
पेड़ों को अपंग  कर
बिलखते पत्तों की रुदन
पृथ्वी को थरथराते हुए.
हाँ,बहती नदी को भी
अब घूरने लग गये हैं नियोजक-नियंता
क्योंकि उन्हें पता है कि
अब नहीं लौटेंगी
पराभूत होती जिंदगियां.
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