Saturday, July 7, 2012

अशोक आंद्रे


             उम्मीद
 
जिस भूखंड से अभी
 
रथ निकला था सरपट
 
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
 
नंगा कर  रहे थे उन पेड़ों को
 
हवा के बगुले
 
मई के महीने में.
 
पोखर में वहीं,
 
मछली का शिशु
 
टटोलने लगता है माँ के शरीर को.
 
माँ देखती है आकाश
 
और समय दुबक जाता है झाड़ियों के पीछे
 
तभी चील के डैनों तले छिपा
 
शाम का धुंधलका

उसकी आँखों में छोड़ जाता है कुछ अन्धेरा .
 
पीछे   खड़ा बगुला चोंच में दबोचे
 
उसके शिशु की
 
देह और आत्मा के बीच के
 
शून्य को निगल जाता है
 
और माँ फिर से
 
टटोलने लगती अपने पेट को.
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        नदी 
 
 
नदी के उद्गम स्थल पर शोर नहीं होता है.
क्योंकि सारा शोर तो 
नन्हीं घास के बीच छिपा रह कर 
सृजन की पहली सीढ़ी को छूने की 
कोशिश कर रहा होता है,
नहीं तो जंगल में सृजन कैसे कर पाएगी नदी ?
 
हरियाली लिए किनारे 
जो नदी को अपनी ओर
आकर्षित करते हैं लगातार 
उसी आकर्षण की पूर्णता में ही तो,
पूरा वातायन संगीतमय हो उठता है.
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