Tuesday, July 29, 2014

अशोक आंद्रे


आहट दो क़दमों की

रोज शाम के वक्त सुनता है वह  
जब उन दो क़दमों की आहट को ,
तब साँसें थम जाती हैं
उन हवाओं की थपथपाहट के साथ
जहाँ ढूँढती हैं कुछ, उसकी निगाहें
घर के आँगन के हर कोनों में,
वहीं पेड़ भी महसूस करते हैं
पत्तों की सरसराहट में उन आहटों को,
उन्हीं दृश्यों के बीच अवाक खड़ा
नैनों की तरलता को थामें
निहारता रहता है आकाश में
अपनी स्व: की आस्थाओं को भीजते हुये  
किसी मृग की तरह,
लेकिन जिस्म तो
किसी अनाम रोशनियों के बीच
नन्हें शावक की तरह गायब हो गया है
वहां अँधेरा इबारत तो लिखता है
जिसे पढने में असमर्थ वह  
उन क़दमों की आहट में छिपे
शब्दों को अपने कानों के करीब
फुसफुसाते हुये महसूस करता है,
तब पास ही बिछी
नन्हीं कोंपलों की चादर को 
अपने पांवों के नीचे फैली
कोमलता भरे स्पर्श को अनुभूत करता है, 
जहां वह हमेशा उसके करीब रहता है  
क्योंकि उसके-अपने मध्य  
ईश्वरीय अक्स उसको  
अपने करीब की थिरकती साँसों से
आत्मीय सुकून से भर देता है

    ******