Sunday, April 13, 2014

अशोक आंद्रे

 
यादों के मकान
जब से यादों के मकान बनाये हैं
उसमें सब कुछ होने के बावजूद
हर वक्त
रोशनदान की कमी महसूस होती है
तभी से एक बैचेनी का सैलाब
पूरे समय
घेरे रहती है उसको
और जिन्दगी की सुभह को
शाम में तब्दील कर देती है
वहां सूरज तो है
मात्र लाली लिए हुये
सब कुछ राख कर देना चाहती है
जो बदनुमा दाग की तरह
उसकी सिहरन भरी जिन्दगी में
सब कुछ बयाँ कर जाता है
जिसे सूरज की रोश्नी में
हमेशा के लिए भूलने की
कोशिश करता है
जबकि रोशनदान तो फिर भी दिखाई नहीं देता है.
उधर घर के पास बैठा
बूढ़ा भी तो
सुभह उठते ही
रात की कालिमा से
लदे दाग को झाड़ने लगता है
वह जानता है कि दाग तो हट नहीं पाते
किन्तु उसके हाथ
जरूर लाल होकर
ताजगी का अहसास करा देते हैं
उसे देख वह भी
रोशनदान के न होने के
दुःख को भूल जाता है
फिर अपनी यादों के मकान में
रोशनदान की कल्पना को स्थापित कर
सुभह की ताजगी को महसूस करने लगता है
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