Sunday, March 10, 2013

अशोक आंद्रे

लेकिन बिल्ली तो ....!
बिल्ली ने जब भी रास्ते को लांघा
तब हर कोई खामोश हो उसे देखता है
मन में अस्तित्व विहीन शंकाओं के गुबार
उमड़ने लगते हैं लगातार,
कितनी प्राकृतिक प्रक्रियाओं के चलते
करती हैं निरंतर यात्रा ,
उसकी तमाम इच्छाएं तथा शंकाएं बाजू में खडी रहकर।
कुछ भी तो नहीं बदलता है इस दौरान
मनुष्य है कि इसे ही शाश्वत समझ कर निगाहों से घूरता हुआ
दहलता रहता है खामोश
जिसकी निरंतरता के चलते वह,
जिन्दगी की तमाम मंजिलों को तय करता रहता है।
जबकि यह उसके दिमाग की शिराओं में
आक्टोपस की तरह अपना विस्तार कर लेती है
उसकी ही जमीन में फैली घबराहट पर,
ऐसा अक्सर बड़े-बूढ़े कहा करते हैं।
वह तो कानो के रास्ते से होते हुए
दिल को गहरा छू लेती है
जहां उसकी मंजिल तभी तय हो जाती है।
क्योंकि चेहरे तो लौटते रहेंगे इसी तरह की शंकाओं के लिए
ताकि उसकी अनंत यात्राओं के पुल बनाएं जा सकें।
ताकि उसकी प्राकृतिक सोच के साथ
जहां सब कुछ पहले से तय होता है
उसकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत हो सके।
लेकिन बिल्ली तो फिर भी ..............!
###########