Thursday, September 10, 2015

अशोक आंद्रे

वह मेरे सपनें में

रोज मेरे सपनों में आती है वह,
किसी उदासीन दृश्य की तरह
खनखनाती हुई अपने सुहाग चिन्हों को.
दर--दीवार को छूने की बजाय
टेबल पर पड़े मेरे पेन को छूकर
मुस्कुराने लगती है वह.
उसकी लटें
बाहर से आती हवा में
लहरा कर
किसी अनंत और उद्दाम कथा को
रूपायित करते हुये
मेरे चेहरे को
ढांपने की कोशिश करती है.
उसकी आँखें
बहुत कुछ बयाँ करने के लिये
अपनी स्मित हंसी को
कब्र में से निकालती हुई
प्रतीत होती हैं.
मेरा समग्र उसको सुनने के लिए
ठिठका रह जाता हैं,
मेरे सपनों की फंतासी को
उद्ग्विन करने की कोशिश में
वह
अपने उन्नत अंगों से
थाप देती है मुझे शनै:-शनै:
तभी आकाश के स्याह बादलों की अमर्यादित बूँदें
भिगो जाती हैं उसके चेहरे को,
उसको पाने की भरपूर कोशिश करता हूँ
मेरे अन्दर के जागृत शैतान की मौजूदगी में:,
यकायक उसके हाथ मेरे गालों को छूकर
कुछ सन्देश देते हैं मनो
और मैं स्वप्न नरक से उबर कर
जीवन के आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगता हूँ.
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Wednesday, May 20, 2015

अशोक आंद्रे

एक सलीब और 

पराभूत होती जिंदगियां
विषाद को पीठ पर लादे
सिर कटी देह
व्यस्त चौराहों पर
समय के सलीब पर लटकी हैं.

शब्द हीन प्रणय की प्रार्थना करती
खामोश हो
अनंत गहराइयों में
रोपती हैं बीज,
आदमी है कि
अहं के दरवाजे उघाड़
विजय घोष की तस्वीर उकेरते ही
घबराहट की धार पर
शमशानी परिवेश के
रचने लगता है पन्ने,

सुनो, जंगल दहाड़ रहा है
पेड़ों को अपंग  कर
बिलखते पत्तों की रुदन
पृथ्वी को थरथराते हुए.
हाँ,बहती नदी को भी
अब घूरने लग गये हैं नियोजक-नियंता
क्योंकि उन्हें पता है कि
अब नहीं लौटेंगी
पराभूत होती जिंदगियां.
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Friday, January 16, 2015

अशोक आंद्रे


दरिन्दे
दरिन्दे
करीब की दुनिया में
अँगुलियों की नोक पर टिकाये,

सधे हुये शब्दों की
तासीर में
छुआ देते हैं मरघट की आग.

भीड़ बेचारों की  
छिपाये आक्रोश को जेब में  
फुसफसाती रहती है वक्तव्य और दुहाई.
सभ्य होने का नाटक रचती  
खोजने लगती है भीड़  
वीरान रास्ता.

ताकि सृष्टिकर्ता के विधान को
कोसा जा सके यथासंभव.
प्रवक्ता मानवता के स्वयं से दूर छिटके-छिटके   
आईने में समाधान के
स्वयं का प्रगतिशील चेहरा देख हो लेते हैं संतुष्ट.  

और साम्राज्य दरिंदों का
बढता ही जाता है लगातार.
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