Thursday, September 10, 2015

अशोक आंद्रे

वह मेरे सपनें में

रोज मेरे सपनों में आती है वह,
किसी उदासीन दृश्य की तरह
खनखनाती हुई अपने सुहाग चिन्हों को.
दर--दीवार को छूने की बजाय
टेबल पर पड़े मेरे पेन को छूकर
मुस्कुराने लगती है वह.
उसकी लटें
बाहर से आती हवा में
लहरा कर
किसी अनंत और उद्दाम कथा को
रूपायित करते हुये
मेरे चेहरे को
ढांपने की कोशिश करती है.
उसकी आँखें
बहुत कुछ बयाँ करने के लिये
अपनी स्मित हंसी को
कब्र में से निकालती हुई
प्रतीत होती हैं.
मेरा समग्र उसको सुनने के लिए
ठिठका रह जाता हैं,
मेरे सपनों की फंतासी को
उद्ग्विन करने की कोशिश में
वह
अपने उन्नत अंगों से
थाप देती है मुझे शनै:-शनै:
तभी आकाश के स्याह बादलों की अमर्यादित बूँदें
भिगो जाती हैं उसके चेहरे को,
उसको पाने की भरपूर कोशिश करता हूँ
मेरे अन्दर के जागृत शैतान की मौजूदगी में:,
यकायक उसके हाथ मेरे गालों को छूकर
कुछ सन्देश देते हैं मनो
और मैं स्वप्न नरक से उबर कर
जीवन के आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगता हूँ.
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