कुर्सी संवाद
कॉफी हाउस की दो अलग मेजों के साथ रखी दो कुर्सियों को बेयरे ने उठाकर खुली छत पर आमने-सामने रख दिया. काफी देर तक चुप रहने के बाद एक ने दूसरे से पूछा - "बहन, बहुत दुखी दिखाई दे रही हो."
"बात ही कुछ ऎसी हो गई है." उसका स्वर भीगा हुआ था.
"क्यों क्या हुआ ?"
"मैं अपवित्र हो गई हूं."
"क्या बात कह रही हो, बहन."
"मैं सच कह रही हूं-----."
"आखिर हुआ क्या?"
"मुझे यहां आए चार साल हुए----- आज तक यहां आने वालों में साहित्यकार, कलाकार ही होते थे, लेकिन आज-----."
"आज क्या----?"
"आज------ आज एक नेता यहां आया और पूरे डेढ़ घण्टे तक जमकर मुझ पर बैठा रहा-----मैं तो कहीं की न रही, बहन." वह फफक उठी.
दूसरी की आंखें भी गीली हो गयीं, क्योंकि उसे अपनी पवित्रता भंग हो जाने की चिन्ता सताने लगी थी.
( १ जनवरी,१९८५)
निराशा
उस दिन मोहल्ले में एक खतरनाक वारदात हो गयी थी. किसी सिरफिरे ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी. चारों ओर सनसनी फैली हुई थी और पुलिस की गश्त जारी थी. बाजार बन्द था. सारा दिन गुजर चुका था, लेकिन सड़क में गश्ती सिपाहियों के अलावा किसी आदमी की शक्ल दिखाई नहीं पड़ी थी. कभी कभार कोई कुत्ता दुम हिलाता हुआ अवश्य गुजर जाता था.
वह सुबह से ही इन्तजार कर रही थी कि शायद कोई आ जाये, लेकिन सारा दिन खाली बीत गया था. इस समय उसकी जेब में दस-दस पैसे के मात्र पांच सिक्के पड़े थे और वह सुबह से ही भूखी थी. वह निराश होकर पलंग पर लेट गयी और सिपाहियों और कातिल को मन ही मन कोसने लगी . उसे अभी भी आशा थी कि शायद कोई ग्राहक सिपाहियों की नजर बचाकर आ जाये. उसके कान जीने की ओर लगे हुए थे. एक बार उसे लगा कि कोई जीना चढ़ रहा है. वह हड़बड़ा-कर उठ बैठी . शीशे के सामने जाकर बाल और कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन तब तक आगन्तुक दो बार दरवाजा खटखटा चुका था. उसने खुश मन से दरवाजा खोला. आने वाला, गश्ती पुलिस का एक सिपाही था.
वह घबड़ायी-सी एक ओर हटकर खड़ी हो गयी. सिपाही ने मुड़कर दरवाजे की कुण्डी चढ़ा दी और बोला, "घबड़ाओ नहीं, मैं तो यह देखने आया हूं कि तुमने कॊई ग्राहक तो नहीं छुपा रखा." और वह उसकी बांह पकड़कर अन्दर की ओर ले गया. वह कोई प्रतिरोध नहीं कर पायी. थोड़ी देर बाद सिपाही के वापस लौट जाने पर दरवाजा बन्द कर वह पलंग पर ढह गयी. अब वह और अधिक जिराश थी, क्योंकि उसकी जेब में अभी भी दस-दस के पांच सिक्के ही पड़े थे और उसे बहुत जोरों से भूख लगी हुई थी.
(१९८४)
रूपसिंह चन्देल माइकी के साथ
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
दो चिट्ठे- रचना समय और वातायनसंप्रति: roopchandel@gmail.com roopschandel@gmail.com
कॉफी हाउस की दो अलग मेजों के साथ रखी दो कुर्सियों को बेयरे ने उठाकर खुली छत पर आमने-सामने रख दिया. काफी देर तक चुप रहने के बाद एक ने दूसरे से पूछा - "बहन, बहुत दुखी दिखाई दे रही हो."
"बात ही कुछ ऎसी हो गई है." उसका स्वर भीगा हुआ था.
"क्यों क्या हुआ ?"
"मैं अपवित्र हो गई हूं."
"क्या बात कह रही हो, बहन."
"मैं सच कह रही हूं-----."
"आखिर हुआ क्या?"
"मुझे यहां आए चार साल हुए----- आज तक यहां आने वालों में साहित्यकार, कलाकार ही होते थे, लेकिन आज-----."
"आज क्या----?"
"आज------ आज एक नेता यहां आया और पूरे डेढ़ घण्टे तक जमकर मुझ पर बैठा रहा-----मैं तो कहीं की न रही, बहन." वह फफक उठी.
दूसरी की आंखें भी गीली हो गयीं, क्योंकि उसे अपनी पवित्रता भंग हो जाने की चिन्ता सताने लगी थी.
( १ जनवरी,१९८५)
निराशा
उस दिन मोहल्ले में एक खतरनाक वारदात हो गयी थी. किसी सिरफिरे ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी. चारों ओर सनसनी फैली हुई थी और पुलिस की गश्त जारी थी. बाजार बन्द था. सारा दिन गुजर चुका था, लेकिन सड़क में गश्ती सिपाहियों के अलावा किसी आदमी की शक्ल दिखाई नहीं पड़ी थी. कभी कभार कोई कुत्ता दुम हिलाता हुआ अवश्य गुजर जाता था.
वह सुबह से ही इन्तजार कर रही थी कि शायद कोई आ जाये, लेकिन सारा दिन खाली बीत गया था. इस समय उसकी जेब में दस-दस पैसे के मात्र पांच सिक्के पड़े थे और वह सुबह से ही भूखी थी. वह निराश होकर पलंग पर लेट गयी और सिपाहियों और कातिल को मन ही मन कोसने लगी . उसे अभी भी आशा थी कि शायद कोई ग्राहक सिपाहियों की नजर बचाकर आ जाये. उसके कान जीने की ओर लगे हुए थे. एक बार उसे लगा कि कोई जीना चढ़ रहा है. वह हड़बड़ा-कर उठ बैठी . शीशे के सामने जाकर बाल और कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन तब तक आगन्तुक दो बार दरवाजा खटखटा चुका था. उसने खुश मन से दरवाजा खोला. आने वाला, गश्ती पुलिस का एक सिपाही था.
वह घबड़ायी-सी एक ओर हटकर खड़ी हो गयी. सिपाही ने मुड़कर दरवाजे की कुण्डी चढ़ा दी और बोला, "घबड़ाओ नहीं, मैं तो यह देखने आया हूं कि तुमने कॊई ग्राहक तो नहीं छुपा रखा." और वह उसकी बांह पकड़कर अन्दर की ओर ले गया. वह कोई प्रतिरोध नहीं कर पायी. थोड़ी देर बाद सिपाही के वापस लौट जाने पर दरवाजा बन्द कर वह पलंग पर ढह गयी. अब वह और अधिक जिराश थी, क्योंकि उसकी जेब में अभी भी दस-दस के पांच सिक्के ही पड़े थे और उसे बहुत जोरों से भूख लगी हुई थी.
(१९८४)
रूपसिंह चन्देल माइकी के साथ
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
दो चिट्ठे- रचना समय और वातायनसंप्रति: roopchandel@gmail.com roopschandel@gmail.com
7 comments:
भाई आंद्रे जी, कथासमय निरंतर देख रहा हूँ। अच्छा प्रयास है आपका। चन्देल की दोनों लघुकथाएं पहले पढ़ी होने के बावजूद दुबारा पढ़ने में उतना ही प्रभाव छोड़ने में सक्षम रहीं जितना इन्होंने बहुत पहले पहलीबार पढ़ने पर मुझ पर छोड़ा था।
रूप सिंह चंदेल जी की लघु कथाएँ हृदय को चीरती निकल गईं.
कुर्सी संवाद में कुर्सियों के माध्यम से करारी और निराशा में गहरी चोट चंदेल जी की लेखनी का ही कमाल है. कुर्सी संवाद में गहन सच्च को चित्रित करने का जो प्रयोग किया गया है--अति सुंदर ,
दोनों कथाएँ प्रभाव और छाप छोड़ने में सक्षम रहीं हैं - - लंबे समय तक याद रहें गी. अशोक जी आप का सारा ब्लाग भी पढ़ लिया , बहुत -बहुत बधाई .
Bhai Chandel jee
aap kee dono laghu kathaeiN padhin. Bheetar gehrey tak chubhan mehsoos huyee. Kursi kee apvitrata aur veshya ki bhookh aur nirasha - ghazab!
Your writings of 1984 and 1985 are so brilliant and sensitive. Ye wohi period thaa jab bharat mein Indira Gandhi ki hatya huyee thee aur mera 11 varsha ka bhaanja achanak Meningitis ke kaaran chal basa thaa.
Laghu kathaaon ke liye Badhaai.
Tejendra
Chandel jee kee dono laghu kahaniyan main padh
gayaa hoon.Dono kahaniyon ke theme man ko chhote hain.
Roop singh chandel ek vikhyaat kathaakaar hain..Unkee lekhni
kathaa kaa taanaa-baanaa sadaa achchha hee buntee hai.
Pran Sharma
Ashok Andrey ji,
aapki website main kuch samsya hai. Maine Roop Singh ji ki kahania kal hi pad li thin aur aapki kavitaein bhi. aapki choti choti kavitaon par tippani dene ki koshish ki aur wahi atak gayi . phir Roop Singh ji ki kahanion par tippani dena rah gaya.
Roop Singh Ji ki kahania hamari raajneetik- samajik vyavastha par teekha vyangya karti hain aur patahk ke marm ko seedhe sparsh karti hain. Roop Singh ji ko badhai. asha hai unki aur kahania padne ko milengi.
Ila(USA)
Roop Singh ji ki laghukathaayen samkaalin rajneeti va vyawastha par karaara vyanga karti hain----sath hi sath nirasha kahani ke madhyam se samvedana ki gahraai me utarne me poori tarah saksham hain kahanikar.Aapki kavitaaon se bhi gujarna hua aur prabhavit hue bina na rah saki-----ranjana srivastava,siliguri
mini story is a painful and heart-rending description of a destitute and hapless woman who has been forced into the ugly profession and it shows how cruel is the man to a woman right from times immemorial.
one describe the cunning and selfish motos of some politicians. How detestable they are but common man is just helpless like the woman in the 2nd mini-story.
Dr. Ajit Singh
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