Sunday, February 1, 2009

अशोक आन्द्रे

कविता

(१)

हवा चली

निगाह लौटी

दीया बुझा

परदा खामोश -

सिहर गई , कुर्सी बरामदे की ।

(२)

बादल गरजा

धूप सोखी

पेड़ चीखे

बीज सहमा

सपने कुलबुलाये -

भीज गई धरती सारी ।

(३)

जब नहीं था शब्द

ध्वनि थी उस वक्त

अनर्थ नहीं था तब

अर्थ के साथ,

नाचते थे तब ध्वनि के संग

अंतस के शब्द ।

असहज

पता नहीं क्या

खोजता रहा

हथेलियों की बीहड़

रेखाओं के मध्य ,

रात उठी ......और चली गई ।

जिद

रोशनी को तलाशता

एक पहाड़ से-

दूसरे पहाड़ के पीछे भागा

लोग चीखे

धुंध छटी

पत्थर लुढ़का

बिखर गया सन्नाटा, चारों ओर ।

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