कविता
(१)
हवा चली
निगाह लौटी
दीया बुझा
परदा खामोश -
सिहर गई , कुर्सी बरामदे की ।
(२)
बादल गरजा
धूप सोखी
पेड़ चीखे
बीज सहमा
सपने कुलबुलाये -
भीज गई धरती सारी ।
(३)
जब नहीं था शब्द
ध्वनि थी उस वक्त
अनर्थ नहीं था तब
अर्थ के साथ,
नाचते थे तब ध्वनि के संग
अंतस के शब्द ।
असहज
पता नहीं क्या
खोजता रहा
हथेलियों की बीहड़
रेखाओं के मध्य ,
रात उठी ......और चली गई ।
जिद
रोशनी को तलाशता
एक पहाड़ से-
दूसरे पहाड़ के पीछे भागा
लोग चीखे
धुंध छटी
पत्थर लुढ़का
बिखर गया सन्नाटा, चारों ओर ।
No comments:
Post a Comment