Sunday, June 14, 2009

कविता - अशोक आंद्रे

पता नहीं मैं कहाँ आ गया हूँ ?
क्यों कि आना अपने हाथ में नहीं होता है ।
लोग कहते हैं कि आना ही पड़े तो ,
बिना आवाज किए आना चाहिए
जैसे हवा नासा में घुस जाती है
जैसे दहशत पूरे शरीर में समा जाती है
जैसे पानी में जीव आ जाता है
जैसे रात होते ही सपने किसी तूलिका में घुस आते हैं
और माँ के आनंद में जैसे विश्वास घुस जाता है
तब पता चलता है कि हम कहाँ आ गए हैं ।

6 comments:

PRAN SHARMA said...

BAHUT SUNDAR BHAVABHIVYATI HAI.
MAA KE AANAND MEIN JAESE VISHWAS
GHUS JAATA HAI JAESEE PANKTIYON
MEIN MUN RAM GAYAA HAI.ASHOK JEE,
ACHCHHEE KAVITA KE LIYE,AAPKO
NANA BADHAAEEYAN.

Roop Singh Chandel said...

Priya Ashok Ji,

जैसे रात होते ही सपने किसी तूलिका में घुस आते हैं
Rat , Sapane aur Tulika ka arth mujhe nahi khula. Vaise kavita acchi hai, lekina typing mistakes hain.

Badhai.

Chandel

सुभाष नीरव said...

एक अच्छी कविता के लिए बधाई ! कुछ शब्दों को अपने सही रूप में न पाकर तकलीफ होती है, इस तरफ ज़रा ध्यान दें।

हरकीरत ' हीर' said...

अच्छा प्रयास है नीरव जी ने सही फ़रमाया है ....और बेहतर हो सकती थी .....अगली बार उम्मीद रहेगी .....!!

Anonymous said...

Dear Ashok,

Right now I have gone through your mini poems and mini stories. The depth of your thoughs is splendid. There is a meaning and philosophy in your first mini poem. There are no appropriate words tha I have to describe it.

Wishing you further success

Thanks
Dr. Ajit Singh Tanda
1001,Preet Nagar,W. No. 4
Darapur Mandi,P.O.Tanda
Distt.Hoshiarpur 144204
tele: 01886 222646
Mobile;-09417052646

सुरेश यादव said...

kavita padhi achchhi lagi badhai