लेकिन बिल्ली तो ....!
बिल्ली ने जब भी रास्ते को लांघा
तब हर कोई खामोश हो उसे देखता है
मन में अस्तित्व विहीन शंकाओं के गुबार
उमड़ने लगते हैं लगातार,
कितनी प्राकृतिक प्रक्रियाओं के चलते
करती हैं निरंतर यात्रा ,
उसकी तमाम इच्छाएं तथा शंकाएं बाजू में खडी रहकर।
कुछ भी तो नहीं बदलता है इस दौरान
मनुष्य है कि इसे ही शाश्वत समझ कर निगाहों से घूरता हुआ
दहलता रहता है खामोश
जिसकी निरंतरता के चलते वह,
जिन्दगी की तमाम मंजिलों को तय करता रहता है।
जबकि यह उसके दिमाग की शिराओं में
आक्टोपस की तरह अपना विस्तार कर लेती है
उसकी ही जमीन में फैली घबराहट पर,
ऐसा अक्सर बड़े-बूढ़े कहा करते हैं।
वह तो कानो के रास्ते से होते हुए
दिल को गहरा छू लेती है
जहां उसकी मंजिल तभी तय हो जाती है।
क्योंकि चेहरे तो लौटते रहेंगे इसी तरह की शंकाओं के लिए
ताकि उसकी अनंत यात्राओं के पुल बनाएं जा सकें।
ताकि उसकी प्राकृतिक सोच के साथ
जहां सब कुछ पहले से तय होता है
उसकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत हो सके।
लेकिन बिल्ली तो फिर भी ..............!
###########
11 comments:
'जबकि यह उसके दिमाग की शिराओं में
आक्टोपस की तरह अपना विस्तार कर लेती है'
यह आक्टोपस उन्हीं शिराओं में विस्तार कर पाता है जिनमें धारणा पूर्व से अपनी जड़ें जमाये बैठी होती है।
बिल्ली भले ही चली जाये जड़ें चलती नहीं इसलिये वहीं रह जाती हैं।
yashavee kavivar shri Ashok Andre
kee ythaarth se yukt is kavita ke
kyaa hee kahne ! Unkee lekhni kaa
main kaayal hun .
लेकिन अन्धविश्वास आज भी कायम है ....
सार्थक रचना...उत्तम!
Bahut sundar kavita Ashok ji, Andhvishashon ke nirmaan ke mahaul ki, jis mahaul mein andhvishwas hamare bheetar, hamare man prano mein ghar banate hain, usko ujagar karti kavita, jaanwaron ki duniya se hamare prakritik rishton ke beech deewarein khadi karte mahaul ki, sach yeh sab lekin kuch to baat hai jaanwaron ki apni prakriti ki, kavita behad khoobsoorat, badhai sweekar karein
प्रकृति अपने तरीके से हमें सन्देश देती है - हमारी मानसिकता के अनुरूप । हमने बिल्ली को आधार बना लिया है अपने लिए तो इसके लिए हम जिम्मेवार हैं । यदि कोई और माध्यम चुन लें तो वही आधार बन जाएगा ।
अच्छी कविता । बधाई !
सादर
इला
भूतों की कहानियों भूत पैदा करती हैं आैर फिर वो बस भी जाते हैं...
प्रकृति का नियम और शाश्वतता अडिग है, भले हम अनजान सही. बिल्ली या कोई उपाय कुछ नहीं बदल सकता. फिर भी मनुष्य अपने इर्द गिर्द आशंकाओं का जाल बुने रहता है और संभावनाओं के लिए खुद को तैयार. बहुत अर्थपूर्ण रचना, बधाई अशोक जी.
सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक और सांस्कृतिक --हर क्षेत्र में विसंगतियाँ ,विद्रूपतायें सिर उठाए खड़ी हैं पर लोग भीड़ का हिस्सा बनना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि कायरता ने उनकी सामर्थयता को निगल लिया है । विवेक का क्षणिक स्फुरण तो होता है पर अडिगहोकर उस पर अमल न करने के कारण दूसरों से हटकर कोई भी कदम नहीं उठा पाते । यह कब तक चलेगा !या इसको परंपरा का जामा पहनाकर जीवित रखना है -ऐसे अनगिनत प्रश्न तलवार की तरह लटकते कवि हृदय को घायल किए हुये हैं । सुधि पाठक सोच के अनगिनत झोंको में खो जाता है ।
सुधा भार्गव
namaskaar
gahre bhaavo wali gahan anubhut ki hui kavitaae , jinhe ek baar padh kar chhod dene k liye nahi varan baar baar vaachan karne ka man kartaa hai , sadhuwaad umdaa lekhani k liye ,
saadar
Post a Comment