बादलों की
बादलों की गडगडाहट पर
गाती हैं बुँदे
सागर की उछाल पर
नाचती हैं लहरें
वृक्षों की धडकनों पर
लहराते पत्ते
बजाने लगते हैं मृदंग
धरती की छाती से निकली
छुअन पर
नाच उठता है जीवन
और जमीं की छाती से
सिर उठाने लगती है
नन्ही कोंपलें
फिर क्यूँ
इतने गहन संगीत से भरी कायनात के
ह्रदय में,
द्रवित रहते हैं हमारे अहसास
और क्यूँ नाचने को आतुर
हमारे कदम
डूबने लगते हैं
शर्मीले भावों के नद में
कुछ खोजते हुए.
जबकि नाचते-नाचते मैं
थक जाता हूँ
पर वे नहीं थकते कभी
ऐसा क्यूँ ?
ऐसे सवाल मेरे मन में
अक्सर गूंजते हैं
फिर एक कोशिश----
तभी एक पत्ता
थाम लेता है मेरा हाथ
अनजानी ध्वनियों की गूँज में
तब झूम जाता है मेरा मन.
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7 comments:
SEEDHEE-SAADEE BHASHA AUR SEEDHE -
SAADE BHAAV , AAPKEE KAVITAAON KEE
VISHESHTA HAI . ACHCHHEE KAVITA KE
LIYE AAPKO BADHAAEE .
तभी एक पत्ता
थाम लेता है मेरा हाथ
अनजानी ध्वनियों की गूँज में
तब झूम जाता है मेरा मन.
जिस व्यक्ति में यह 'एक पत्ता' जीवंत है, उसे कोई हताशा, कोई निराशा नहीं घेर सकती और न ही उसके आसपास फटक सकती है। अच्छी कविता के लिए बधाई आंद्रे जी।
वृक्ष के जीवन चक्र में कोंपलों और पत्तों का आगमन ही तो थिरकन का कारण बन जाता है।
बड़ी खूबसूरती के वृक्ष से मनुष्य की बात कह दी आपने।
खूबसूरत अहसास से रची रचना
मन की सोच लों सलाम
namaskar
behad gahri abhivyakti . ek bodh karaati kavitaa , hamara man pe apne padchaap chhodti . sadhuwad
saadar
प्रकृति अपने में मगन है... आदि अंत के द्वन्द से परे. लेकिन हम मनुष्य... आस भरे एक पत्ते की उम्मीद में. बस यही जीवन. बहुत अच्छी रचना, बधाई.
इस कविता में प्रकृति का मानवीयकरण करते हुए कवि उसके सौंदर्य मे और उससे झनझनाते तारों की मधुर ध्वनि में डूबना चाहकर भी नहीं डूब पाता है पर एक अदृश्य रूह के कोमल और स्नेहसिक्त स्पर्श मात्र से वह अवसाद की खाई से निकल उठ खड़ा होता है । यह रूह अदृश्य होते हुये भी उसके लिए अंजान नहीं प्रतीत होती ,उसकी छुअन मात्र के एहसास से ही कवि हृदय भावनाओं के हिंडोले में झूलने लगता है । अति भावपूर्ण अभिव्यक्ति है ।
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