नारी
नारी !
तुम तो बहती नदी की वो
जल धारा हो
जिसमें जीवन किल्लोल करता है
नारी,
तुम धरती पर लहलहाती
हरियाली हो
बरसात के साथ
जीवन को नमी का
अहसास कराती हो
नारी,
तुम गंगा सी पवित्र आस्था हो
जो समय को
अपने आँचल में बाँध
विश्वास को पल्लवित करती हो
नारी,
तुम्हारा न रहना
किसी मरघट की शान्ति हो जाती है
फिर सुहागन होने की
बात क्यूँ करती हो?
कुछ कदम साथ चलने की बात करो,
नहीं तो हताशा के भाव उभरने लगते हैं.
नारी,
तुम तो सहचरी हो
मनुष्य के क़दमों को ताकत देती हुई
जीवन की संरचना करती हो
कुछ भी नष्ट होने की प्रक्रिया में भी
जीवन का हाथ थामने की
भरपूर कोशिश करती हो
सृष्टि का विस्तार भी तो तुम्हीं से संम्भव है
मनुष्य तो नारी को नकार
मात्र विनाश का ही आगाज करता है
नारी,
तुम्हारे अस्तित्व के कारण ही तो
कायनात की हर स्थितियां
तुम्हारे गीत गाती हैं
जिसे मनुष्य समझने की कोशिश नहीं करता
और अपनी निकृष्टता का परिचय दे
महान होने का दावा करने लगता है
लेकिन नारी,
तुम्हारे बिना जिन्दगी की
सारी क्रियाएं बेमानी हैं
इसीलिए नारी,
सृष्टि हर क्षण तुम्हारे
इसी खुबसूरत स्वरूप को,
हमेशा प्रणाम करती है.
*********
9 comments:
nari kee hazaar visheshtaayen hain . wahaan devtaaon kaa vaas
hai jahaan nari kaa maan - sammaan
hotaa hai . aapke ye kavita ghar -
ghar mein padhee jaanee chaahiye .
uttam kavita ke liye aapko badhaaee .
" नारी तुम केवल श्रद्धा हो" से भी दो कदम आगे ले जाती नारी को परिभाषित करती अति संवेद्य और संवाहक कविता.…… तुम्हारा होना जीवन और न होना मरघट का सूनापन, सृष्टि अभियंता का तुम्हे शत-शत नमन. - Inder Gupta
अच्छी, भावप्रवण कविता है और यथार्थपरक भी;
तुम्हारे बिना जिन्दगी की
सारी क्रियाएं बेमानी हैं
इसीलिए नारी,
सृष्टि हर क्षण तुम्हारे
इसी खुबसूरत स्वरूप को,
हमेशा प्रणाम करती है.
खूबसूरत..अच्छी कविता ...
प्रकृति के हर रूप में नारी और नारी के हर रूप में प्रकृति, यही सत्य है।
स्त्री का अस्तित्व बतलाती अत्यंत प्रभावशाली रचना के लिए बधाई.
बहुत ही उत्कृष्ट भावों को समेटे एक उल्लेखनीय कविता. सुन्दर शब्द चयन और अद्भुत भावाभिव्यक्ति. बधाई अशोक इस लाजवाब कविता को पढ़वाने के लिए.
रूपसिंह चन्देल
हर नारी के मन की आवाज़ को बुलंदी पर पहुंचा दिया है आपने
कविता -नारी
कविता का मर्म बहुत गहरा है जिसे कुछ शब्दों में व्यक्त करना बड़ा कठिन है ।
इस कविता में कवि रहस्यमयी नारी के अनेक रूपों को उजागर करता हुआ ,अपनी समवेदनाओं को काव्यात्मक बाना पहनाते हुए उसे समाज में यथोचित स्थान दिलाने के पक्ष में है । आए दिन उसके साथ किए दुर्व्यवहार के प्रति कवि ने रोष प्रकट कर पुरुष वर्ग को सचेत करते हुये अपनी आवाज बुलंद की है । सामाजिक अवधारनाओं की परतें टटोलता हुआ कवि खिन्न हो मर्मांतक पीड़ा में कैद होकर रह जाता है -
तुम्हारा न रहना
किसी मरघट की शांति हो जाती है
फिर सुहागन होने की
बात क्यूँ करती हो ?
कुछ कदम साथ चलने की बात करो ,
नहीं तो हताशा के भाव उभरने लगते हैं ।
इस कविता में भावनाओं के आलोड़न के साथ -साथ यथार्थता की लकीरें हैं जिनसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता ।
Post a Comment