खून
हाँ यही वो जगह है
अभी कुछ
समय पहले
एक चलते-फिरते शरीर को
दनदनाती गोलियों के साथ
खामोश कर
दिया है.
क्योंकि उसने सारी जिन्दगी
सच्चाई
के लिए
अंतहीन लड़ाई लडी है.
और
ये,
चुप्पी साधे पत्ते
उसके
प्रत्यक्षदर्शी गवाह हैं
जो अभी तक दहशत में
सिहरे
खड़े हैं
हाँ! यही वो जगह है
जहां की
मिट्टी ने
खून से लथपथ
उस
आत्मा को
तड़फड़ाते देखा है.
उसकी इस
सच्ची शहादत को सिर्फ
दो-चार चिड़ियों ने घबराकर
देखा होगा
जिनकी
गवाही को
बाद के छ्णों में तोड़-मरोड़
दिया जायेगा
क्योंकि उनकी गवाही नहीं हो
सकती है
हाँ एक व्यक्ति ने व्यक्ति
को
सच बोलने के जुर्म के तहत
हमेशा के लिए
उसकी आवाज को शांत कर दिया
है
अब सिर्फ इतिहास के पन्ने
खून से सनी उस मिटटी को
कल अवशेषों को ढूँढने की तरह
खोदकर
अपनी जिम्मेदारी को पूरी कर
देगा.
लेकिन यह खून हमेशा
चिल्ला-चिल्ला कर
उस जगह
की तरफ संकेत करेगा
जहां से फिर हमें
उसकी
लड़ाई को आगे बढाना होगा.
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9 comments:
इस दर्द की लड़ाई में ...कोई साथ दे ना दे ..पर वक्त जरुर साथ देता है .....सच कहा किसी बेकसूर को सज़ा देने वाले हम कौन होते हैं ...फिर ये बेवक्त का खून-खराबा क्यों ???
बहुत सच्ची और अच्छी कविता अशोक जी .
साथ ही ये कविता एक प्रश्न भी उठाती है कि क्यों न हम प्रेम और मित्रता बाँट कर जिए . !
आपको दिल से बधाई !
विजय
आंद्रे जी , अच्छी कविता है !
खून
सुधा अरोरा
एक अच्छी कविता के लिए बधाई अशोक.
चन्देल
लेकिन यह खून हमेशा
चिल्ला-चिल्ला कर
उस जगह की तरफ संकेत करेगा
जहां से फिर हमें
उसकी लड़ाई को आगे बढाना होगा.
बहुत खूब
आदमी में एक शोला पल रहा है
इक अनवरत् युद्ध जैसा चल रहा है
।
BAHUT KHOOB . AAPKEE LEKHNI KO
MUBAARAQ .
इस कविता में सार्वभौमिक सत्य को उजागर किया है कि अन्याय,अत्याचार और आतंक से सच्चाई का गला नहीं घोंटा जा सकता । यद्यपि इस कठिन राह पर चलते कुर्बानियाँ देनी पड़ती है ,कुछ कायर खड़े तमाशा देखते हैं , बिरले ही सच्चाई का साथ देते हैं पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान है। लेकिन मौका पाते ही दबी राख़ में चिंगारी की तरह सत्य फिर भड़क उठता है और दुगुन वेग से आगे बढ़ जाता है । सार्थक काव्य के लिए बधाई ।
यह कविता आपके सोच के केनवास को और अधिक प्रसार देती प्रतीत होती है।
शहादत के दर्द की दुर्दांत खाइयों में, बंजारे से भटकते आपके सोच ने आशावाद का आँचल सहेजा है.…. और ….फ़िर से अंतहीन लड़ाई को आगे बढ़ाने को तत्पर … वाह बहुत खूब
इंद्र तथा सविता
सच को मार दिया जाता है लेकिन मिटाया नहीं जा सकता. उसी सच का साथ देने उसी जगह से नए हौसले के साथ फिर से बीज पनपता है और फिर... एक दिन सच जीतता है. सार्थक रचना, बधाई अशोक जी.
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