सपनें
कितने सपने लेता है
आदमी
सारे रिश्ते
सपनों के करीब
झिलमिलाते हैं उसके
कहते हैं कि सपने
आसमान से आते हैं
लेकिन आदमी चला जाता है इक दिन
और सपने नीचे रह जाते हैं
आखिर सपने साथ क्यों नहीं जाते ?
उन सपनों का क्या करे जो
पीछे रह जाते हैं,
क्योंकि वे तो
सर्वनाम बन कर जीने लगते हैं.
******
उन पत्तों पर पैर रख कर
अपनी यादों की चिंदी-चिंदी कर बैठता हूँ
शायद यही नियति होती है
उस सत्य की
जिसे सदियों से हम
पालते पोसते रहे हैं.
******
दीया तो मंदिर में जलता है
लेकिन अँधेरा
घर में फैलता है
आदमी है कि
गीत प्रभु के गाता है
दूर कहीं भूखे पेट
बिलखता है बच्चा .
******
सपनों के करीब
झिलमिलाते हैं उसके
कहते हैं कि सपने
आसमान से आते हैं
लेकिन आदमी चला जाता है इक दिन
और सपने नीचे रह जाते हैं
आखिर सपने साथ क्यों नहीं जाते ?
उन सपनों का क्या करे जो
पीछे रह जाते हैं,
क्योंकि वे तो
सर्वनाम बन कर जीने लगते हैं.
******
यादें
मेरे चारों ओर
यादों को समेटे
सूखे पत्तों का
अंबार लगा हुआ है
और मैं अपनी बेवकूफी
से उन पत्तों पर पैर रख कर
अपनी यादों की चिंदी-चिंदी कर बैठता हूँ
शायद यही नियति होती है
उस सत्य की
जिसे सदियों से हम
पालते पोसते रहे हैं.
******
भूखे पेट
ये कैसा दृश्य है दीया तो मंदिर में जलता है
लेकिन अँधेरा
घर में फैलता है
आदमी है कि
गीत प्रभु के गाता है
दूर कहीं भूखे पेट
बिलखता है बच्चा .
******
11 comments:
सपने सर्वनाम बन कर जीने लगते हैं.…" एक छाया अनुप्रास जो भीतर तक उतरता चला गया …गहरे और गहरे।
" यादें " कविता यादों की नियति को बाखूबी परिभाषित करतीं हैं। यह उन सुधि पाठकों के नासूरों पर मरहम लगाती प्रतीत होती है, जो बेचैनी में न जी पाते हैं और ना .......
"भूखे पेट", मंदिर के भगवान से आँखें मिला कर प्रश्न करती हुई उसके अस्तित्व को ही संदेह के घेरे में लेती लग रही है।
तीनों कविताओं के कलेवर का लघु होते हुए भी प्रभावोत्पादक होना, टी -२० सा सुखद लगा. बधाई
-इन्द्र सविता
इन कविताओं में कवि के व्यथित हृदय का कोलाहल स्पष्ट सुनाई देता है । भावनात्मक लहरों का आलोड़न एक टीस पैदा करता है पर काव्यात्मक सौंदर्य के कारण वे सहज ही दिल में उतर जाती हैं।
TEENON HEE UTKRISHT KAVITAAYEN .
AAPKEE LEKHNI KO SALAAM .
तीनों कवितायें अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं।
आदरणीय आन्द्रे जी,
आपकी कविताएं पढ़ीं। "सपने" और "यादें" पढ़कर मन बहुत उदास हो गया। मै कविताएं नहीं, उनके पीछे छिपी आहत मन:स्थिति पढ़ रही थी। मन ही है न, उदास भी हो जाता है। उबरने की कोशिश भी ख़ुद ही करनी होती है। मैने भी एक कहानी लिखी थी जो "पुष्पगंधा" पत्रिका के नवम्बर- जनवरी अंक में प्रकाशित हुई थी। वह वेब पर नहीं है पर आपको अपनी ओर से भेज रही हूं। इस बाबत कुछ नहीं लिख रही। जो कहना था कहानी को ही प्रेषित करना चाहिए।
मैने यह पत्र ब्लॉग पर डालने के लिए नहीं, निजी भावों को आप तक पहुंचाने के लिए लिखा है।
सादर
अनिलप्रभा कुमार
अत्यंत सुन्दर एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति है । उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति हेतु शतश: साधुवाद।
सुनील गज्जानी
Dhanyavad bandhu.Kavitaen dekhi.Achha laga.
Harish Chandra
आदरणीय अशोक जी,
आज आपकी तीनों कविताएँ मैंने पढ़ीं l
सपने - ' उन सपनों का क्या करें जो पीछे रह जाते हैं '
बहुत भावुक, मन को छूती हुई कविता लिखी है आपने l
यादें - जीवन के सत्य को उद्भासित करती, कहीं गहरे, कुछ सोचने को प्रेरित करती रचना l
भूखे पेट - इसमें समाज के ग़रीब बच्चों दुर्दशा का दयनीय चित्रण किया है आपने l
मुझे आपकी ये तीनों ही रचनाएँ बहुत रुचीं l
बहुत बधाई l
सराहना के साथ,
सादर,
कुसुम वीर
प्रिय भाई आंद्रे जी
लगता है सपनों में अपनों को ढूढ़ते-ढूढ़ते जिन शब्दों का आप उपयोग करते हैं उनकी सरलता को बड़े ही सीधे तरीके से हृदय की गहराइयों तक पहुंचाने की क्षमता रखते हैं | कवि सीधी-सादी अभिव्यक्ति के माध्यम से कितनी गूढ़ता को स्पष्ट कर देता है यह आपकी कविताएं कह रही हैं, उसके बारे में मैं क्या कहूँ ?
पी एन टॅंडन
behad umdaa bhaav sanyojan
अति सुन्दर प्रस्तुति
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