आहट दो क़दमों की
रोज शाम के वक्त सुनता है वह
जब उन दो क़दमों की आहट को ,तब साँसें थम जाती हैं
उन हवाओं की थपथपाहट के साथ
जहाँ ढूँढती हैं कुछ, उसकी निगाहें
घर के आँगन के हर कोनों में,
वहीं पेड़ भी महसूस करते हैं
पत्तों की सरसराहट में उन आहटों को,
उन्हीं दृश्यों के बीच अवाक खड़ा
नैनों की तरलता को थामें
निहारता रहता है आकाश में
अपनी स्व: की आस्थाओं को भीजते हुये
किसी मृग की तरह,
लेकिन जिस्म तो
किसी अनाम रोशनियों के बीच
नन्हें शावक की तरह गायब हो गया है
वहां अँधेरा इबारत तो लिखता है
जिसे पढने में असमर्थ वह
उन क़दमों की आहट में छिपे
शब्दों को अपने कानों के करीब
फुसफुसाते हुये महसूस करता है,
तब पास ही बिछी
नन्हीं कोंपलों की चादर को
अपने पांवों के नीचे फैली
कोमलता भरे स्पर्श को अनुभूत करता है,
जहां वह हमेशा उसके करीब रहता है
क्योंकि उसके-अपने मध्य
ईश्वरीय अक्स उसको
अपने करीब की थिरकती साँसों से
आत्मीय सुकून से भर देता है
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9 comments:
Kavita kaa aarambh , Madhya aur ant teenon kee abhivyakti man ko
chhootee hai .Aapkee lekhni ko naman .
प्रकृति मे अलौकिक अनुभूति का सुन्दर चित्र.
बीनू भटनागर
Danyavad bhai,
Kavita achchhi lagi
harish chandra
आहट दो कदमों की –कविता मेँ संयोग और वियोग का अद्भुत मिश्रण है। साथ ही आध्यात्मिकता का पुट है।
दिन तो किसी तरह निकल जाता है और शाम का विरही को इंतजार रहता है –परंतु
शाम के वक्त सुनता है वह जब उन दो कदमों की आहट को ,
तब सांसें थम जाती है।
अच्छा विरोधाभास है। विचित्र मनोस्थिति का आभास एक पंक्ति ही करा जाती है।
अवसाद के क्षणों मेँ भी विरही उसकी महक के सम्मोहन मेँ डूबा रहता है और जब उसे प्यार भरी हवाएँ अपने आगोश मेँ ले लेती हैं तो एक अलौकिक आनंद से भर कर संतुष्ट हो उठता है कि ईश्वरीय इच्छा का विरोध तो संभव नहीं पर उसका प्यार जीवित है।
काव्य सौंदर्य से कविता मेँ भावनाओं का आलोड़न देखते ही बनता है और सुधि पाठक बहुत कुछ पा जाता है।
इतनी सुंदर कविता पढ़ने को मिली ।इसके लिए अशोक जी को धन्यवाद ।
सुधा भार्गव
आदरणीय अशोक जी,
बहुत ही जीवन्त और सारगर्भित कविता लिखी है आपने l
बहुत पसंद आई l
बहुत बधाई और सराहना के साथ,
सादर,
कुसुम
आहट दो कदमों की सुनकर भी मूक , स्तब्ध हूं।
बस, सुमित्रानन्दन पंत की यह पंक्तियां मन में घुमड़ रही हैं;
"वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आंखों से चुपचाप,बही होगी कविता अनजान।
मंगल कामनाएं।
अनिल प्रभा कुमार
प्रिय अशोक जी ,
अच्छी लगी कविता। होते हुए भी न होना और न होते हुए भी होना कुछ ऐसा ही दार्शनिक अंदाज़ है आपकी कविता का, जिसने बेचैन विरही के सच्चे प्यार को ईश्वरीय अनुभूति के रंग में रंग दिया है। उसके सुकून से पाठक को भी सुकून मिलता है।
इन्दर सविता
कुछ नया होने का अहसास करवाती रचना
बहुत सुन्दर और भावुक अभिव्यक्ति
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाऐं ----
सादर --
कृष्ण ने कल मुझसे सपने में बात की -------
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