आओं,
इन हवाओं के साथ मिलकर गाएं
इनकी सरसराहट में
प्रादेशिकता की बू नहीं -
न मजहबी तास्सुबे, न कटुता -
आओं,
इन विहगों के साथ मिलकर गाएं
और उडें निर्भीक होकर -
इनकी दुनिया में
न दहशतगर्दी है,न आतंक -
इन्हें न सैलाब का डर है
न किसी आंधी या तूफान का-
इनकी दुनिया में आंतकवादी नहीं होते,
हवाओं की तरह
इनका जीवन भी मुक्त है बन्धनहीन.
अपनी इच्छा से उड़ते हैं ये प्रवासी -
इनकी दुनिया में कोई रोकटोक नहीं
न कोई बंधन है पासपोर्ट का
न प्रवास - पत्र की जरूरत-
हवाओं की तरह
गुदगुदा लेते हैं ये सीना
चढ़ी नदी का-
घुस जाते हैं पर्वतों की फटी दरारों में-
पेड़ों से कर लेते हैं छेड़खानी -
अपने पंखों पर
तोल लेते हैं ताकत तूफानों की.
आदमी कितना छोटा है इनके आगे!
खुद अपने आप से डरा
अपने बन्धनों में बंधा
अपनी ही रस्सियों में कसा-
आओं, हवाओं के साथ गाएं
पक्षिओं के साथ उड़ें !
परिंदा
मैंने जब- जब
पानी की सतह पर
चलने की कोशिश की
मुझे उस आसमान से डर लगा
जो सागर में छिपा
थरथर काँप रहा था
और हैबत खाई नजरों से
मुझे घूर रहा था
सागर में दुबका बैठा वह भीरु
अगर
तनकर खडा हो गया होता
जुल्म के खिलाफ उठी
किसी तलवार की तरह
तो सच कहता हूँ
मेरे भीतर जो बैठा है अदम्य
पानी की सतह पर चल पड़ता पुरजोर !
यह अन्दर का ही भय है
जो मारता है मनुष्य को
वर्ना
पानी चाहे कितना ही सुनामी बनकर
क्यों न गरजे या लरजे
कहीं वह
संस्कृतियों और मनुष्यों को मिटा सकता है !
मैं जानता हूँ
कि मैं चल सकता हूँ
सतह के ऊपर
लेकिन
पहले मुझे
उस हिलते हुए आकाश को
बाँध लेना है अपनी बाहों में
जैसे वह छोटा सा परिंदा
बाँध लेता है आकाश को
अपने पंखों की परवाजी कुव्वत में
और अपनी छोटी सी आँख में
बिठाकर उसे
घूमता रहता है उन्मुक्त -
गुदगुदा लेता है
नदिओं , सरोवरों और सागरों का सीना
और उठा ले जाता है
पानी की बूँद में बैठा नायाब मोती !
परिंदे की दुनिया में
डर का नाम लेना वर्जित है
इसीलिये शायद
हवाई जहाज ईजाद करने वाले इंसान से भी
कहीं ज्यादा लम्बी
उड़ान भर लेता है परिंदा !
जमीन से पहचान
आसमान की ओर ताकने से
तकदीरें तो बुलंद नहीं हो जातीं -
पता नहीं शायद इसी गलतफहमी में
इस देश के लोग
आज तक
ताकते रहे हैं आकाश
और भूतली साजिशों से
नितांत बेखबर रहे !
ऋतुचक्र तो घूमना था- घूमता रहा
बसंत आया - अनदेखा कर दिया
शरद मुस्काई - हेमंत सिसियाई
थरथर कांपते काट दीं शिशिर की रातें
निदाध के दाग भी सहे सीने पर-
तुम्हारी दुर्दशा देख
क्वार भी भाग गया फटा गूदड़ समेत!
नजर झुकाकर
जरा देखते तो सही अपनी जमीन
मूसलाधार वर्षा ने
कैसा दलदल कर दिया है सबकुछ
तुम्हारे पांवों तले-
लेकिन अब खुलने लगा है आकाश
और मौसम भी होने लगा है साफ जरा-जरा
पर तुम
दलदल में धंसे रहना
अपनी नियति समझ बैठे हैं -
कम्बल में गुच्छू -मुच्छू बैठे
आकाश ताकते रहने से
तुम आकाश के तारे तो नहीं तोड़ सकते ?
उठो !
निकलो दलदल से बाहर
और तुम्हारे इर्द-गिर्द
जो सब्जा उग निकला है
उसकी तरावट महसूस करो !