आदिकाल से हरिकथा अनंत के सहारे
अपने ही स्वरुप को पहचानने की कोशिश करता रहा हूँ ।
सवाल तो सवाल ही होता है,
पहेलियों की तरह
शिशु अवस्था की तरह उलझा,
फिर भी कोशिश करता हूँ पहचानने की स्वयं को
शायद पकड़ में आ सके कुछ ,
लेकिन स्पर्श पाते ही
टूटने लगता है निज का स्वरुप
टपाटप सवाल तब कमान साधने लगते है अज्ञात की ओर
सवाल तब भी उठते है ,
जब दक्षिणी ध्रुवों की तरह बर्फीली धार
छूते हैं मन ,
धुआँ - धुआँ हो जाता हूँ मैं ।
हे देव ! तुम्हारी कथा की अनंतता की जगह ,
अंत का छोर फैलने लगता है
कमजोर होते दृग , भेदने लगते है आकाश को तब ।
सब जगह व्याप्त है , ऐसा माँ से सुना था ।
अंदर - बाहर सब जगह तुम्हीं हो ,
अगर हो ? तो मैं कमजोर क्यों हो जाता हूँ लगातार ,
ओर क्यों होने लगता है पाप का विस्तार ,
कहीं ऐसा तो नही कि अपने कमजोर अस्तित्व को
छिपाने के लिये , चस्पां कर देते हो मुझ पर ,
यह सारी अनंत कथाएं
हे देव.........!
Sunday, February 1, 2009
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3 comments:
बहुत सुंदर…आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
आपकी रचना बहुत गहरे भाव लिए हुए है।बहुत सुन्दर रचना है।
Ashok Andre bhai apka svagat hai.
Ab apko blog mein padenge!
--ashok lav
http;//ashoklavmohayal.blogspot.com
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